बरसात होते ही बढ़ने लगती हैं मुश्किलें, कंडी रोड बंद होना आम बात

राजधानी देहरादून से कोटद्वार समेत गढ़वाल के बड़े हिस्से को जोड़ने वाले लालढांग-कोटद्वार मार्ग (कंडी रोड) का बरसात में बंद हो जाना आम बात है।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Sun, 12 Jul 2020 07:24 PM (IST) Updated:Sun, 12 Jul 2020 07:24 PM (IST)
बरसात होते ही बढ़ने लगती हैं मुश्किलें, कंडी रोड बंद होना आम बात
बरसात होते ही बढ़ने लगती हैं मुश्किलें, कंडी रोड बंद होना आम बात

देहरादून, किरण शर्मा। बरसात में राजधानी देहरादून से कोटद्वार समेत गढ़वाल के बड़े हिस्से को जोड़ने वाले लालढांग-कोटद्वार मार्ग (कंडी रोड) का बंद हो जाना आम बात है। इन दिनों भी यही हाल है। बारिश होते ही मार्ग के बीच में पड़ने वाली बरसाती नदियां उफान पर आ जा रही हैं। ऊपर से सड़क कच्ची है, सो अलग। ऐसे में आए दिन बस-टैक्सियों का संचालन जो बंद हो जा रहा है। आप कोटद्वार या गढ़वाल के अन्य हिस्सों से दून आना चाहते हैं या फिर दून से गढ़वाल, तो इंतजार कीजिए बरसात के खत्म होने का। यही आपकी नियति है। क्योंकि, सरकारों ने तो कभी जरूरत ही नहीं समझी कि गढ़वाल-कुमाऊं को सीधे जोड़ने के लिए भी कोई सड़क होनी चाहिए। जबकि, यह रोड कोटद्वार से कालागढ़ होते हुए सीधे रामनगर को जोड़ती है। इस रोड से दोनों मंडलों के बीच की दूरी भी काफी कम हो जाती है। पर, इसकी किसे चिंता।

पौधारोपण का सच

'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'। वन विभाग का हाल भी कुछ ऐसा ही है। विभाग के अनुसार हर साल डेढ़ करोड़ पौधे रोपे जाते हैं, लेकिन इनमें से कितने जिंदा रहते हैं, पता नहीं। कानाफूसी में स्टाफ के लोग अवश्य कहते हैं कि चालीस-पचास फीसद पौधे मर जाते हैं। सवाल तो पौधारोपण पर भी उठते रहे हैं कि जितनी संख्या बताई जाती है, उतनी धरातल पर नजर नहीं आती। यदि आती तो प्रदेश में वनावरण कबका बढ़ गया होता। पौधों को लेकर विभागीय रवैया खानापूरी जैसा ही है, लेकिन पहाड़ के लोग वन की अहमियत समझते हैं। यही वजह है कि गांवों में वन देवी की पूजा की जाती है। उत्तरकाशी जिले के मटिगांव के लोगों ने जिस बांज के जंगल को पनपाया, उसकी सुरक्षा वे देश की सीमा की तरह करते हैं। उत्तरकाशी का डख्याट गांव हो या टिहरी का सिलकोट गांव। इनके लिए वृक्ष परिवार के सदस्य से कम नहीं हैं।

तंत्र की 'कसरत'

तंत्र की 'कसरत' से आम आदमी अच्छी तरह से परिचित है। किसी को कुछ समझाने की जरूरत नहीं, लेकिन बात निकली है तो कुछ बात कर लेते हैं और यह बात है यमुनोत्री धाम में रोप-वे की। वर्ष 2008 में योजना ने आकार लिया तो वर्ष 2010 में इसका टेंडर एक कंपनी को दिया गया। पीपीपी मोड में बनने वाले इस प्रोजेक्ट के लिए ग्रामीणों ने यमुना के शीतकालीन गद्दीस्थल खरसाली में जमीन भी दे दी। अब बारी थी वन और पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाणपत्र की। वर्ष 2014 में यह भी मिल गया। यह सब कुछ हुआ तो वर्ष 2017 में कंपनी ने काम करने से हाथ खड़े कर दिए। जब योजना ने आकार लिया था तब लागत थी 70 करोड़ रुपये। अब यह बढ़कर 180 करोड़ रुपये हो चुकी है। यानी 12 साल के सफर में नौ दिन चले अढाई कोस वाली कहावत भी चरितार्थ नहीं हो पाई।

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...और अंत में

सावन आया और 'झूम' के आया। बारिश ऐसे हो रही है मानो आसमान टूट पड़ा हो। हर बार की तरह इस मर्तबा भी जिंदगी दहशत में है। पिथौरागढ़ में दो जानें भी जा चुकी हैं। सड़कें छलनी हैं और खेत मलबे से पटे हुए। आपदा से जूझने के लिए सिस्टम पूरी तरह से 'तैयार' है। अफसर बता रहे हैं कि एसडीआरएफ और एनडीआरएफ के साथ ही सभी अधिकारी अलर्ट पर हैं। अब आला अधिकारी कह रहे हैं तो अलर्ट पर भी होंगे। आखिर प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए जितना अध्ययन देश-विदेश में उत्तराखंड के सिस्टम ने किया है, उतना देश के शायद ही किसी राज्य में देखने को मिला हो। यह अलग बात है कि हर बार सड़कों को छलनी करने वाले भूस्खलन और डेंजर जोन चिह्नित किए जाते हैं, लेकिन उपचार को लेकर खामोशी ही देखने को मिलती है। अफसरों ने ज्ञान तो बटोरा, लाभ नहीं दे पाए।

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