संत मैथिलीशरण ने कहा- कोविड की औषधि स्वस्थ चिंतन, धैर्य और विवेक
संत मैथिलीशरण (परमाध्यक्ष श्री रामकिंकर विचार मिशन स्वर्गाश्रम) ने कहा व्यक्ति कभी अतीत नहीं होता। उसके अच्छे बुरे कर्म उसे वर्तमान ही रखते हैं। यह कोविड विपदा का दुश्काल है। धैर्य संयम और विवेक ही इसकी औषधि है।
देहरादून। संत मैथिलीशरण (परमाध्यक्ष, श्री रामकिंकर विचार मिशन, स्वर्गाश्रम) ने कहा व्यक्ति कभी अतीत नहीं होता। उसके अच्छे-बुरे कर्म उसे वर्तमान ही रखते हैं। यह कोविड विपदा का दुश्काल है। धैर्य, संयम और विवेक ही इसकी औषधि है। यदि हमें कोविड न हो, तो भी हम निश्चिंत रहें और यदि संक्रमित हो ही जाएं तो धैर्य न छोड़ें। किसी भी विपदा के अनेक कारण होते हैं और हर स्तर पर उसके निवारण का उपाय किया जाना चाहिए। रामायण में दुख के चार कारण बताए गए हैं। यथा-‘फिरत सदा माया का फेरा। काल, कर्म, स्वभाव, गुण घेरा।’ अर्थात काल, कर्म, स्वभाव और गुण, यह कोविड कालकृत दुख की श्रेणी में आते हैं। इसमें व्यक्ति का कोई हाथ नहीं है।
कर्म को यदि कारण मानें तो हमें अत्यंत धैर्य और मानवता के साथ वृक्ष, प्रकृति, जल और अपनी मानसिकता को शुद्ध रखकर उसका मार्ग खोजना चाहिए। इस विपरीत समय में परस्पर एक होकर और प्राणिमात्र के प्रति सद्भाव रखकर कार्य करना चाहिए। दोषारोपण की प्रवृत्ति हमारे वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह नष्ट कर सकती है। उद्वेग के समय किए गए निर्णय कभी भी किसी आदर्श लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर सकते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता सबसे अधिक पशु-पक्षियों में होती है। कारण, उनमें किसी के प्रति राग-द्वोष नहीं होता। इम्यूनिटी बढ़ाने का एक सुंदर और सहज मार्ग है हम गणोशजी की तरह अंकुश और पाश अपने हाथ में रखें।
स्वतंत्र वही है, जिसने स्वयं परतंत्रता का वरण किया है। स्वभावगत दुख व्यक्ति स्वयं खरीदता है। उसके लिए पैसा, शक्ति, समय खर्च करके भी वह दुख लेता है। ऐसे व्यक्ति को सुखी करना असंभव होता है, क्योंकि वह समझता है कि मैं जो सोच रहा हूं और जिसके बारे में सोच रहा हूं, वही सही है। मेरे बारे में सब लोग गलत ही समझते हैं। ऐसा व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता है। गुणकृत दुख तीन प्रकार के होते हैं, सात्विक, राजसिक व तामसिक।
सात्विक दुख में साधक को यह चिंता होती है कि कोई अन्य व्यक्ति गुणों की प्रशंसा में हमसे आगे न हो जाए। राजसिक दुख में व्यक्ति को यह वासना घर कर जाती है कि जीवन के जिस क्षेत्र में हमने उन्नति की है, उसमें कोई भी अन्य हमसे आगे न निकल जाए। गुणकृत दुख का तीसरा स्वरूप है तामसिक गुण। इसका प्रवेश जब व्यक्ति में होता है तो वह किसी को आगे बढ़ते देखकर समझ लेता है कि अब उससे आगे नहीं निकल पाएगा। सो, वह स्वयं आगे बढ़ने के उपाय न करके एक कल्पित मिथ्या उपाय का आश्रय लेता है। वह सामने वाले की टांग खींचकर उसके आगे बढ़ने में बाधा डालता है। इससे वह व्यक्ति न तो स्वयं आगे बढ़ पाता है और न दूसरे का सुख ही देख सकता है। ऐसा व्यक्ति परिवार, समूह, देश सभी के लिए नासूर बन जाता है।
कोविड की इस भयावह परिस्थिति में हमें शांत चित से यह समझना है कि हमारा जीवन और चिंतन इनमें से कौन सी स्थिति में है। हमें किस तरह इससे उबरना है, ताकि हम विवेकपूर्ण इतिहास का हिस्सा बन सकें। कोविड की ही तरह जब कोई वायरस किसी इंद्री विशेष के माध्यम से जीवन में प्रवेश करता है तो व्यक्ति को यह पता नहीं होता कि वह इंद्रियों के अन्य मार्गो का आश्रय भी लेता है। कदाचित जिसकी जानकारी किसी भी व्यक्ति को नहीं होती।
आजकल हम सब नाक-मुंह को तो ढक रहे हैं, लेकिन आंख-कान के माध्यम से जो अफवाह रूपी संक्रमण हमारे अंदर जा रहा है, वह भी उतना ही घातक है, जितना नाक और मुंह से जाने वाला संक्रमण। हम समझना होगा कि जिसकेमन, बुद्धि और चित का पर्यावरण शुद्ध है, प्रकृति उसको सुफल ही देती है। यह हमारे हाथ में है कि हम क्या चाहते हैं।
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