जंगल की बात : वन आर जन के बीच गहरा हो रिश्ता

कुदरत ने उत्तराखंड को मुक्त हाथों से नेमतें बख्शी हैं। बात सिर्फ जंगल की ही करें तो 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में 46 फीसद के आसपास वनावरण है जो यहां की आबोहवा को स्वच्छ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Sat, 05 Jun 2021 07:54 AM (IST) Updated:Sat, 05 Jun 2021 07:54 AM (IST)
जंगल  की बात : वन आर जन के बीच गहरा हो रिश्ता
वनों के संरक्षण को आवश्यक है कि वन और जन के रिश्तों में आई दूरी पाटने को कदम उठाए जाएं।

केदार दत्त, देहरादून। कुदरत ने उत्तराखंड को मुक्त हाथों से नेमतें बख्शी हैं। बात सिर्फ जंगल की ही करें तो 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में 46 फीसद के आसपास वनावरण है, जो यहां की आबोहवा को स्वच्छ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। बावजूद इसके फिजां में यह सवाल भी अपनी जगह है कि क्या हम वनों के संरक्षण में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, जब यहां वन एवं जन के बीच गहरा रिश्ता था। जंगल पनपाने के साथ ही लोग इनसे जरूरतें भी पूरी करते थे। वन अधिनियम-1980 लागू होने के बाद इस रिश्ते में खटास आई है। तब से इस दूरी को पाटने में कामयाबी नहीं मिल पा रही। वह भी तब, जबकि कोरोनाकाल में हम वनों की महत्ता को समझ चुके हैं। जाहिर है कि सिस्टम की नीति और नीयत में कहीं कोई खामी है। इसे दूर करने की सबसे बड़ी जरूरत है।

बाड़ ही खेत चरने लगे तो...

उत्तराखंड में पौधारोपण की तस्वीर देखें तो हर साल औसतन डेढ़ से दो करोड़ पौधे लगाए जा रहे हैं। इस हिसाब से 21 साल में तस्वीर कुछ और ही नजर आनी चाहिए थी। चौतरफा हरियाली होनी चाहिए थी, मगर हकीकत से हर कोई वाकिफ है। 'जंगल में मोर नाचा किसने देखा' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। दरअसल, वर्षाकालीन पौधारोपण, शीतकालीन पौधारोपण के साथ ही हरेला समेत विभिन्न पर्व, अवसरों पर हम पौधे तो लगा रहे, मगर रोपण के बाद इन्हें भूल जा रहे हैं। वन विभाग समेत अन्य एजेंसियों का हाल भी इससे जुदा नहीं है। पौधे लगाने के बाद उनकी तरफ झांकने तक की जहमत नहीं उठाई जा रही। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि जब बाड़ ही खेत चरने लगेगी तो फसल की रक्षा कौन करेगा। कहने का आशय ये कि पौधारोपण को लेकर ज्यादा गंभीर होने की दरकार है। आखिर सवाल हरियाली बचाने का है।

गहराने लगा है हाथियों का खौफ

लालढांग व चिलरखाल क्षेत्र में इन दिनों हाथियों के एक के बाद एक हमलों ने स्थानीय निवासियों की नींद उड़ाई हुई है। असल में यह क्षेत्र राजाजी और कार्बेट टाइगर रिजर्व के मध्य स्थित लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत आता है। इसी वन प्रभाग से होकर दोनों टाइगर रिजर्व के हाथी आवाजाही करते हैं। वर्तमान में इनका मूवमेंट बढ़ने के साथ ही जनसमुदाय के लिए खतरा भी बढ़ गया है। लिहाजा, इस क्षेत्र में हाथी और मानव के बीच टकराव रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। हालांकि, वन विभाग की ओर से हाथी-मानव संघर्ष की रोकथाम के लिए वन सीमा पर सोलर फेंसिंग, हाथीरोधी बाड़, खाई खुदान जैसे कदम उठाए गए हैं, लेकिन जिस तरह से हाथियों ने नाक में दम किया है, उससे साफ है कि ये नाकाफी साबित हो रहे हैं। सूरतेहाल, हाथियों को जंगल में थामे रखने को नए सिरे से रणनीति बनानी होगी

युवा शक्ति को जोड़ना भी जरूरी

पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक है कि इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे। ऐसे में भावी पीढ़ी को बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण की मुहिम से जोड़ दिया जाए तो भविष्य में ज्यादा सार्थक परिणाम सामने आएंगे। हालांकि, देश के अन्य हिस्सों की भांति उत्तराखंड के स्कूल-कालेजों में ईको क्लब अस्तित्व में हैं, मगर इनसे जुड़े विद्यार्थियों को पूरी गंभीरता के साथ पौधरोपण समेत पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी अन्य गतिविधियों से जोडऩे की आवश्यकता है। यदि छात्र जीवन से ही बच्चे पेड़-पौधों के महत्व, वानिकी, पर्यावरण संरक्षण में वनों का योगदान, जल संरक्षण जैसी गतिविधियों के बारे में जानेंगे तो वे इसमें जुटने के साथ ही अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरित करेंगे। साथ ही युवाओं के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है, ताकि भविष्य में वे इन क्षेत्रों में रोजगार की तरफ भी उन्मुख हो सकें। उम्मीद जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में ठोस पहल करेगी।

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