2011 के मानकों पर मरीजों का उपचार करना पड़ रहा भारी, पढ़िए पूरी खबर

कहते हैं आपातकाल से पहले परिस्थितियों को अनुकूल बना लेना ही समझदारी है। यह बात और है कि सरकारी तंत्र पानी सिर के ऊपर चले जाने के बाद हाथ-पैर मारता है। कोरोना संक्रमण के सबसे विकट दौर में मशीनरी चिकित्सा संसाधन जुटाने को जो प्रयास कर रही है।

By Sumit KumarEdited By: Publish:Thu, 13 May 2021 09:50 AM (IST) Updated:Thu, 13 May 2021 05:22 PM (IST)
2011 के मानकों पर मरीजों का उपचार करना पड़ रहा भारी, पढ़िए पूरी खबर
कैग की रिपोर्ट में स्पष्ट बयां किया गया है कि सरकारी अस्पतालों की किस तरह से अनदेखी की जाती रही।

सुमन सेमवाल, देहरादून: कहते हैं आपातकाल से पहले परिस्थितियों को अनुकूल बना लेना ही समझदारी है। यह बात और है कि सरकारी तंत्र पानी सिर के ऊपर चले जाने के बाद हाथ-पैर मारता है। कोरोना संक्रमण के सबसे विकट दौर में मशीनरी चिकित्सा संसाधन जुटाने को जो प्रयास कर रही है, यदि उसकी आधी कसरत भी पहले कर ली जाती तो पर्वतीय क्षेत्रों में हालात इतने विकट नहीं होते। बीते कुछ दिनों से पर्वतीय क्षेत्रों में कोरोना का संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है और चिकित्सा संसाधन उसके मुकाबले बौने साबित हो रहे हैं।

या यूं कहें कि हमारी सरकारों ने पर्वतीय क्षेत्रों को चिकित्सा संसाधनों से लैस करने के लिए अपेक्षित प्रयास कभी किया ही नहीं। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति इससे बड़ी अनदेखी क्या होगी कि रोगी भार के जो मानक अस्पतालों में संसाधन जुटाने के लिए मार्च 2011 में तय किए गए थे, आज भी उसमें बदलाव नहीं किया गया है। जून 2019 में जब स्वास्थ्य सूचकांक में 21 बड़े राज्यों में उत्तराखंड को 17वां स्थान मिला, तब भी मशीनरी नहीं जागी। बीते साल जब कोरोना की पहली लहर आई, तब जाकर सरकार ने इस दिशा में सोचना शुरू किया। हालांकि, संसाधन जुटाने के लिए समय कम था और अचानक से दूसरी लहर आ गई। मैदान में तो फिर भी सरकारी के साथ निजी अस्पताल भी हैं, मगर जिन पहाड़ों की तरफ कोरोना अब पैर पसारता दिख रहा हैं, वहां संसाधनों का घोर अभाव है।

31 मार्च, 2019 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में जारी कैग की रिपोर्ट में स्पष्ट बयां किया गया है कि सरकारी अस्पतालों की किस तरह से अनदेखी की जाती रही। कैग ने वर्ष 2014 से 2019 के बीच सैंपल के तौर पर चमोली, अल्मोड़ा, ऊधमसिंह नगर व हरिद्वार के अस्पतालों की व्यवस्था की चीरफाड़ की और पता चला कि बीते कई सालों में कुछ भी नहीं बदला। यही हालात अन्य जिलों के सरकारी अस्पतालों के भी हैं। कोरोना के बढ़ते संकट में सिर्फ यह मलाल बाकी है कि काश समय रहते हमारी सरकारों ने स्वास्थ्य व्यवस्था की तरफ ध्यान दिया होता तो आज ऑक्सीजन, आइसीयू बेड व जीवन रक्षक दवाओं के लिए मरीज व तीमारदारों को दर-दर न भटकना पड़ता।

डब्ल्यूएचओ की 2017 की संस्तुति भी बेअसर

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने जून 2017 में ऑक्सीजन को जीवन रक्षक औषधि से संबंधित मॉडल सूची में डाल दिया था। इसके अनुरूप ऑपरेशन थियेटर (ओटी) व आइसीयू (सघन चिकित्सा इकाई) में ऑक्सीजन की निर्बाध आपूर्ति जरूरी थी। वहीं, कैग ने मॉडल अस्पतालों की जांच में पाया कि ऑक्सीजन की आपूर्ति उपयुक्त टर्मिनल यूनिट आउटलेट (केंद्रीकृत प्रणाली) से कनेक्टेड नहीं मिली। साथ ही ऑक्सीजन सिलिंडर की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी और साप्ताहिक आधार पर सिलिंडरों की स्थिति जांचने का रिकॉर्ड तक नहीं मिला।

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आवश्यक दवाओं का रहता है अभाव

सरकारी अस्पतालों की जांच में यह भी पाया गया कि जो आवश्यक दवाएं अस्पतालों में हर समय उपलब्ध रहनी चाहिए, वह भी 18 से लेकर 120 दिनों तक स्टॉक में नहीं मिली। इनमें से प्रमुख दवा सांस लेने में तकलीफ के समय दी जाती हैं। कुल 14 प्रकार की आवश्यक औषधियों में से 50 फीसद औषधियों का पर्याप्त स्टॉक नहीं दिखा।

इन दवाओं का रहता है अभाव

एड्रेनालाइन: इलाज के माध्यम से सांस लेने में सुधार, दिल को उत्तेजित करने व निम्न रक्तचाप को बढ़ाने में सहायक दवा।

अमीनोफाइलिन: वायु अवरोध के लक्षणों, फेफड़ों के रोग में प्रयुक्त होने वाली दवा।

सालबुटामोल: अस्थमा, ब्रॉकाइटिस के इलाज में सहायक।

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