जंगल की सड़क, उम्मीद की गाड़ी; राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने दी हरी झंडी

सड़क किसी भी क्षेत्र के विकास की पहली पायदान होती है। इस लिहाज से देखें तो 20 साल सात माह की आयु पूरी कर चुके उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल व कुमाऊं को राज्य के भीतर सीधे आपस में जोड़ने वाली जंगल की सड़क ने अब जाकर उम्मीद जगाई है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Sat, 19 Jun 2021 06:45 AM (IST) Updated:Sat, 19 Jun 2021 06:45 AM (IST)
जंगल की सड़क, उम्मीद की गाड़ी; राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने दी हरी झंडी
वन मार्ग के लालढांग-चिलरखाल हिस्से के निर्माण को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने हरी झंडी दे दी है।

केदार दत्त, देहरादून। सड़क, किसी भी क्षेत्र के विकास की पहली पायदान होती है। इस लिहाज से देखें तो 20 साल सात माह की आयु पूरी कर चुके उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल व कुमाऊं को राज्य के भीतर सीधे आपस में जोड़ने वाली जंगल की सड़क ने अब जाकर उम्मीद जगाई है। बात हो रही है आजादी से पहले चली आ रही कंडी रोड की। कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के साथ ही लैंसडौन वन प्रभाग से गुजरने वाले इस वन मार्ग के लालढांग-चिलरखाल हिस्से के निर्माण को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने हरी झंडी दे दी है। कोशिशें परवान चढ़ी तो जल्द ही उम्मीदों की यह सड़क आम यातायात के लिए खुल जाएगी। यानी, देहरादून व हरिद्वार से कोटद्वार आने जाने को उप्र से होकर गुजरने के झंझट से मुक्ति मिल जाएगी। इसके बनने से कंडी रोड के अगले हिस्से चिलरखाल-लालढांग-रामनगर के निर्माण को कदम उठाए जाने की उम्मीद भी जगी है।

कारीडोर निर्बाध रखने की है चुनौती

यह किसी से छिपा नहीं कि उत्तराखंड में बाघों का कुनबा खूब फल-फूल रहा है। विश्व प्रसिद्ध कार्बेट टाइगर रिजर्व की बाघ संरक्षण में मुख्य भूमिका है। बाघों ने शिखरों तक दस्तक दी है। 14 हजार फीट की ऊंचाई तक इनकी मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। इस परिदृश्य के बीच यह बात भी सामने आई है कि एक दौर में बाघों का मूवमेंट कार्बेट से नेपाल की सीमा तक था। विभाग के पुराने नक्शे इसकी तस्दीक करते हैं। इसे देखते हुए अब कार्बेट से दुधवा नेशनल पार्क तक बाघों के मूवमेंट पर सर्वे की तैयारी है। जाहिर है कि उस दौर में बाघों की आवाजाही के रास्ते (कारीडोर) निर्बाध रहे होंगे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। जगह-जगह मानवीय हस्तक्षेप ने दिक्कतें बढ़ाई हैं। ऐसा ही हाल हाथियों के परंपरागत गलियारों को लेकर है। 11 चिह्नीत गलियारों में से दो-तीन ही निर्बाध हैं। लिहाजा, इन्हें खोलने की चुनौती सबसे बड़ी है।

रेस्क्यू सेंटर पैक, कहां रखेंगे गुलदार

मानव-वन्यजीव संघर्ष से जूझ रहा उत्तराखंड इन दिनों उलझन में है। वह भी ऐसी कि न उगलते बन रहा न निगलते। दरअसल, उत्तराखंड में गुलदारों ने नींद उड़ाई हुई है। पहाड़ हो अथवा मैदान, सभी जगह वन्यजीवों के हमलों में सर्वाधिक गुलदार के ही हैं। इसे देखते हुए विभिन्न स्थानों पर गुलदारों को आदमखोर घोषित भी किया जा रहा है। जो पकड़ में आते हैं, उन्हें चिड़ि‍यापुर व रानीबाग के रेस्क्यू सेंटर में रखा जाता है। चिड़ि‍यापुर में नौ और रानीबाग में चार गुलदारों को रखने की ही क्षमता है। इस लिहाज से दोनों फुल हैं। अब वहां किसी अन्य गुलदार को रखने की जगह नहीं है। इसे देखते हुए महकमे ने रेस्क्यू सेंटर से गुलदारों को देश के उन रेस्क्यू सेंटर में शिफ्ट करने का मन बनाया है, जहां जगह हो। केंद्रीय चिड़ि‍याघर प्राधिकरण से हरी झंडी मिलने के बाद अब इसे लेकर शासन की अनुमति का इंतजार है।

वन्यजीव सुरक्षा को शुरू संवेदनशील वक्त

मानसून ने उत्तराखंड में दस्तक दे दी है। इसके साथ ही वन विभाग के मुलाजिमों के माथों पर चिंता की लकीरें उभरने लगी हैं। वन्यजीवों की सुरक्षा के लिहाज बेहद संवेदनशील वक्त जो शुरू हो गया है। असल में मानसून सीजन के दौरान वन क्षेत्रों में शिकारियों और तस्करों के अधिक सक्रिय होने की आशंका रहती है। वे कब कहां संरक्षित व आरक्षित क्षेत्रों में धमककर अपनी कारगुजारियों को अंजाम दे दें, कहा नहीं जा सकता। हालांकि, महकमे का दावा है कि किसी भी स्थिति से निबटने को उसकी तैयारियां पूरी हैं। इसके तहत वन क्षेत्रों में लंबी दूरी की गश्त समेत अन्य कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन पिछले अनुभवों को देखते हुए आशंका के बादल भी कम नहीं हैं। विभागीय दावों की कलई तब खुल जाती है, जब शिकारी अपनी करतूत को अंजाम देते हैं। जाहिर है कि विभाग को नई रणनीति के साथ मैदान में उतरना होगा।

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