ठंडे बस्ते में : उत्तराखंड में सुरक्षित छत की राह ताक रहे गांव
आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में मानसून का सीजन हमेशा ही भारी पड़ता है। पहाड़ों में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं इस सीजन में सबसे अधिक होती हैं। इस वजह से सैकड़ों गांव खतरे की जद में आ गए हैं।
विकास गुसाईं, देहरादून। आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में मानसून का सीजन हमेशा ही भारी पड़ता है। पहाड़ों में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं इस सीजन में सबसे अधिक होती हैं। इस वजह से सैकड़ों गांव खतरे की जद में आ गए हैं। इन गांवों के लिए बरसात का मौसम सबसे डरावना होता है। सरकार इन गांवों की स्थिति से अनजान भी नहीं है। एक सर्वे में सरकार ने 421 ऐसे गांवों को चिह्नित किया, जिन्हें विस्थापित करने की सबसे अधिक जरूरत महसूस हुई। इसके लिए बाकायदा वर्ष 2011 में आपदा पुनर्वास नीति बनाई गई, ताकि इन गांवों को जल्द किसी दूसरी जगह विस्थापित किया जा सके। बावजूद इसके आज तक केवल 43 गांवों के 1086 परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है। शेष गांवों के लिए अभी तक जमीन नहीं मिल पाई है। ऐसे में इन लोगों को अभी भी हर पल खतरे के साये में जीना पड़ रहा है।
हेली एंबुलेंस के लिए केंद्र का इन्कार
उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यहां पर्वतीय क्षेत्रों में गांव बहुत दूर-दूर हैं। एक कोने में गांव तो दूसरे कोने में ब्लाक अथवा जिला मुख्यालय। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं को पूरी तरह दुरुस्त नहीं किया जा सका है। आज भी पर्वतीय गांवों से ग्रामीण मरीजों को पालकी अथवा कुर्सी पर बिठा अपने कंधों पर उठाकर मुख्य सड़क तक लाते हैं। इसके बाद कहीं जाकर मरीज अस्पताल पहुंचता है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य उपकरण पूरे नहीं हैं। ऐसे में प्रदेश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों से मरीजों को बड़े अस्पतालों तक लाने के लिए हेली एंबुलेंस चलाने का निर्णय लिया। वर्ष 2016 में एंबुलेंस के लिए केंद्र से स्वीकृति भी मिली। तब कुछ कारणों से इसका संचालन नहीं हो पाया। इसके बाद बीते दो वर्ष से प्रदेश सरकार लगातार नेशनल हेल्थ मिशन से इसकी मांग कर रही है लेकिन केंद्र, प्रदेश के इस प्रस्ताव को नकार रहा है।
साहसिक गतिविधियों से रोजगार को अभी इंतजार
प्रदेश से हो रहे पलायन को रोकने के लिए छह साल पहले युवाओं को साहसिक गतिविधियों के जरिये रोजगार दिलाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए मेरे युवा, मेरा उत्तराखंड योजना का खाका खींचा गया। कहा गया कि इस योजना के तहत 18 से 45 वर्ष के स्थानीय युवाओं को राफ्टिंग, स्कीईंग, ट्रेकिंग, पैराग्लाइडिंग जैसी साहसिक गतिविधियों का मुफ्त प्रशिक्षण दिया जाएगा। योजना को पर्यटन विभाग के अंतर्गत चलाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए बजट में पांच करोड़ का प्रविधान भी हुआ। कहा गया कि युवाओं के प्रशिक्षण के दौरान आवास, भोजन समेत पूरी व्यवस्था सरकार की ओर से कराई जाएगी। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद इन्हें रोजगार दिलाने की बात भी कही गई। योजना का खूब प्रचार प्रसार किया गया। लिहाजा, युवाओं के मन में उम्मीद की एक किरण जगी। अफसोस, यह योजना अचानक ही फाइलों में ऐसी उलझी कि आज तक धरातल पर नहीं उतर पाई है।
कागजों में अटके नए सचिवालय व विधानसभा
अस्थायी राजधानी देहरादून में शहर से बाहर विधानसभा और सचिवालय बनाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए रायपुर में जमीन चिह्नित की गई। तीन साल पहले यहां विधानसभा और सचिवालय बनाने के लिए पर्यावरणीय अनुमति भी मिल गई। बावजूद इसके इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है। दरअसल, प्रदेश में अभी तक स्थायी राजधानी का फैसला नहीं हुआ है। नतीजतन, समस्त सरकारी अवस्थापना सुविधाएं देहरादून में ही विकसित की जा रही हैं। विधानसभा शहर के बीचोंबीच है। यहां हर सत्र के दौरान विपक्षी दल और तमाम संगठनों द्वारा धरने प्रदर्शन किए जाते हैं। इससे यहां जाम की स्थिति बनी रहती है। साथ ही इस मार्ग से आने-जाने वालों, विशेषकर स्कूली बच्चों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसे देखते हुए विधानसभा को शिफ्ट करने का निर्णय लिया गया था, लेकिन इस पर अभी तक कोई पुख्ता कदम नहीं उठाए जा सके हैं।
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