कारगिल विजय दिवस के 22 बरस पूरे, वायदे अभी भी अधूरे
कारगिल युद्ध को 22 बरस बीत गए मगर अब तक राज्य में हर शहीद के घर को जोड़ने वाले मार्ग का नामकरण शहीद के नाम पर नहीं हो पाया। नजदीकी शिक्षण संस्था का नामकरण भी शहीद के नाम पर होना था। यह वायदा भी फाइलों में कैद है।
विजय मिश्रा, देहरादून। कारगिल विजय दिवस पर मुख्यमंत्री ने राज्य के सैन्य परिवारों के लिए कई घोषणाएं कीं। सरकार का यह कदम सराहनीय है। इससे इतर सरकार को सैन्य परिवारों से किए गए उन वायदों को भी साकार करने की दिशा में कदम उठाने चाहिएं, जो अधूरे रह गए। कारगिल युद्ध को 22 बरस बीत गए, मगर अब तक राज्य में हर शहीद के घर को जोड़ने वाले मार्ग का नामकरण शहीद के नाम पर नहीं हो पाया। नजदीकी शिक्षण संस्था का नामकरण भी शहीद के नाम पर होना था। यह वायदा भी फाइलों में कैद है। विडंबना यह भी है कि स्मृतियों को जीवित रखने के लिए शहीदों के नाम पर जिन मार्गों का नामकरण किया गया या जो शिलापट लगाए गए, वह भी बदहाल हैं। ऐसा कोई वीरता पदक नहीं है, जो सूबे के रणबांकुरों को न मिला हो। बावजूद इसके अपनी ही मातृभूमि में शहादत की यह उपेक्षा कांटे की तरह चुभती है।
सरकार के लिए न चुनौती
पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ चुनौतियों का पिटारा भी मिला। उस लिहाज से कार्यकाल काफी कम है। खैर, मुख्यमंत्री धैर्य के साथ हर चुनौती का सामना कर रहे हैं। अब एकाएक राज्य के कर्मचारियों ने उग्र तेवर दिखाकर उनकी सरकार को मुश्किल में डाल दिया है। सफाई कर्मचारियों के बाद ऊर्जा कार्मिकों ने मोर्चा खोला। उस पर पुलिस विभाग में 4600 ग्रेड-पे की जो मांग अंदरखाने सुलग रही थी, अब पुलिसकर्मियों के परिवार उसे आंदोलन के रूप में सतह पर ले आए हैं। बेरोजगार भी रोजगार की मांग को लेकर मुखर हैं। दूसरी तरफ, शिक्षक पदोन्नति समेत अन्य मांगों पर हल्ला बोलने को तैयार हैं। इससे विपक्ष को भी सरकार को घेरने का मौका मिल रहा है। देखना होगा कि सरकार इससे कैसे निपटती है। क्योंकि, यह चुनौती लंबी चलने वाली है। विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आएंगे, कर्मचारी संगठन मांगों को लेकर मुखर होंगे।
चौकसी बढ़ाने की है जरूरत
कोरोना की तीसरी लहर की आशंका को लेकर सरकार गंभीर है। इसके लिए हर स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। कांवड़ यात्रा रद करना भी इसी का हिस्सा है। सरकार की मंशा को तंत्र भी परवान चढ़ाने में पूरी शिद्दत से जुटा है। राज्य की हर सीमा पर चौकसी बरती जा रही है। पूरी कोशिश है कि कांवड़ यात्री प्रदेश में न घुसने पाएं। तंत्र की यह सक्रियता सराहनीय है। इससे इतर, गुरु पूर्णिमा पर हरिद्वार में गंगा स्नान के लिए जो भीड़ उमड़ी, वह चिंता बढ़ा गई। तंत्र का ध्यान कांवड़ यात्रियों को रोकने तक ही सीमित रहा और गुरु पूर्णिमा पर हरिद्वार में कोविड की रोकथाम के लिए लागू किए गए नियम गंगा की जलधारा के साथ बह गए। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना होगा। जब तक खतरा टल नहीं जाता, गंगा घाटों पर इस तरह के सामूहिक स्नान पर पाबंदी लगाना ही ठीक रहेगा।
झील-झरनों के आसपास सुरक्षा जरूरी
नदियां, झील और झरने। ये जलस्त्रोत उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं। देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार आने वाले पर्यटकों का तो प्राथमिक उद्देश्य ही इन जलस्नोतों का सुख पाना होता है। ये जलस्त्रोत जितना लुभाते हैं, उतना ही खतरनाक भी हैं। बीते एक साल में यहां कई पर्यटकों की जान जा चुकी है। चंद रोज पहले ही दून के सहस्रधारा में नदी में फोटो खिंचवाने के प्रयास में पर्यटक बह गया था। ऋषिकेश में भी ऐसे ही हादसे हुए। लापरवाही से इतर जलस्त्रोतों के किनारे सुरक्षा के मुकम्मल इंतजामात न होना भी हादसों की वजह है। दून के गुच्चू पानी और सहस्रधारा में हर वर्ष हादसे होते हैं। बावजूद इसके यहां गोताखोरों व जलपुलिस की व्यवस्था नहीं है। ऋषिकेश में भी अधिकांश घाटों का यही हाल है। नैनीताल में तो झीलों के किनारे चेतावनी बोर्ड तक नहीं दिखते। तंत्र को पर्यटकों की सुरक्षा के प्रति भी गंभीर होना होगा।
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