दशकों से नशे के लिए इस्तेमाल होने वाली वनस्पतियों की हो रही खेती

प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में दशकों से नशे के लिए इस्तेमाल होने वाली वनस्पतियों की खेती होती है। इससे निर्मित नशीले पदार्थ पूरे प्रदेश में फैल रहे हैं। युवा पीढ़ी इसकी गिरफ्त में आ रही है। शासन व प्रशासन को इसकी पूरी जानकारी है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Fri, 30 Oct 2020 08:33 AM (IST) Updated:Fri, 30 Oct 2020 05:42 PM (IST)
दशकों से नशे के लिए इस्तेमाल होने वाली वनस्पतियों की हो रही खेती
प्रदेश के सीमांत जिलों में नशीले पौधों की धड़ल्ले से खेती हो रही है।

देहरादून, विकास गुसाईं। प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में दशकों से नशे के लिए इस्तेमाल होने वाली वनस्पतियों की खेती होती है। इससे निर्मित नशीले पदार्थ पूरे प्रदेश में फैल रहे हैं। युवा पीढ़ी इसकी गिरफ्त में आ रही है। शासन व प्रशासन को इसकी पूरी जानकारी है, लेकिन इच्छाशक्ति की कमी के कारण इसकी रोकथाम के लिए किए गए तमाम प्रयास सफल नहीं हो पाए हैं। यही कारण है कि तकरीबन पांच साल से सीमांत क्षेत्रों के लिए ड्रग उन्मूलन समिति गठित करने का निर्णय आज तक धरातल पर नहीं उतर पाया है। तब कहा गया कि यह समिति ऐसी वनस्पति की खेती को रोकने और नष्ट करने का कार्य करेगी। प्रदेश से सटे हिमाचल प्रदेश ने भी इसके खिलाफ संयुक्त अभियान चलाने की मंशा जाहिर की। बावजूद इसके इस दिशा में कदम नहीं उठे। आज भी यह खेती धड़ल्ले से हो रही है और ड्रग उन्मूलन समिति का कहीं अता-पता नहीं है।

आपदा प्रभावित गांवों का पुनर्वास कब

प्रदेश में आपदा की जद में आए 395 गांवों को आज भी पुनर्वास का इंतजार है। यह स्थिति तब है, जब इन्हें आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील घोषित किया जा चुका है। स्थिति यह है कि बरसात में इन गांवों में बादलों के घिरते ही सांसें अटकने लगती हैं। प्राकृतिक आपदाओं से उत्तराखंड निरंतर जूझता रहा है। खासकर पर्वतीय इलाकों में आपदा से गांवों के लिए खतरा बढ़ रहा है। पिथौरागढ़ में इस वर्ष बरसात के दौरान कई गांवों में जनजीवन पूरी तरह प्रभावित हुआ। बावजूद इसके जिम्मेदार महकमे इस दिशा में गंभीरतापूर्वक कदम नहीं उठा रहे हैं। विडंबना यह है कि राज्य में वर्ष 2011 में पुनर्वास नीति बन चुकी है। वर्ष 2012 से इस पर कार्य शुरू हुआ, अब तक केवल 26 गांवों के प्रभावित परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है। शेष गांव आज भी सरकार की ओर नजरें टिकाए पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।

नहीं हुआ आदर्श गांवों का ऑडिट

प्रदेश के सांसदों द्वारा गोद लिए गए गांव। मंशा यह थी कि सांसद इन गांवों के विकास की रूपरेखा तय करेंगे। उम्मीद बहुत जगी, शुरुआत में काम भी हुआ, लेकिन धीरे-धीरे ये गांव बिसरा दिए गए। बैठकों में इनके विकास की सुनहरी तस्वीरें दिखाई गई। जब सवाल उठे तो प्रदेश सरकार ने इन गांवों में विकास कार्यों का जायजा लेने को थर्ड पार्टी ऑडिट करने का निर्णय लिया। मुख्यमंत्री ने जिलों के लिए बनाए गए प्रभारी सचिवों को गांवों में जाकर भौतिक निरीक्षण करने का जिम्मा देकर 45 दिनों के भीतर इसकी रिपोर्ट देने को कहा। इसके लिए भ्रमण कैलेंडर भी बनाकर उपलब्ध कराया गया। मुख्यमंत्री के फरमान के बावजूद सचिवों ने इन गांवों में जाने की जहमत नहीं उठाई। नतीजतन, आज तक इन गांवों का ऑडिट नहीं हो पाया है। इस कारण इन गांवों में हुए विकास कार्यों की सही तस्वीर गांव वालों के अलावा कोई नहीं जानता है।

नहीं बनी ऑनलाइन टैक्सी संचालन नियमावली

प्रदेश में इस समय सभी तरह की व्यवस्था ऑनलाइन की जा रही हंै। मकसद जनसामान्य को घर बैठे ही अधिक सुविधाएं प्रदान करना है। कोरोना काल में ऑनलाइन कार्यों की महत्ता भी बढ़ गई है। बावजूद इसके डेढ़ वर्ष से ओला व उबर समेत अन्य ऑनलाइन बुकिंग के जरिये चल रही टैक्सियों के संचालन को बनी नियमावली शासन में ही धूल खा रही है। दरअसल, प्रदेश में इस समय ऑनलाइन टैक्सी सर्विस की खासी मांग है। कई कंपनियां बेहद किफायती दरों पर सेवाएं प्रदान करने का दावा कर रही हैंं। ग्राहक इन सेवाओं का इस्तेमाल भी कर रहे हैं, लेकिन इनके संचालन को परिवहन विभाग में अभी तक कोई नियमावली नहीं है। विभाग ने इसे अवैध ठहराया तो टैक्सी संचालकों ने नियमावली पर सवाल उठा दिए। बीते वर्ष नियमावली बनाई गई। इसे अनुमोदित करने के लिए शासन के पास भेजा गया। तब से यह शासन में लंबित चल रही है।

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