भूमि पर दंगल : जन भावनाओं से जुड़े भू-कानून में अब तक हो चुके अहम बदलाव
उत्तराखंड में भूमि का मुद्दा जन भावनाओं और संवेदनाओं से सीधे जुड़ा रहा है। राज्य बनने के बाद से ही भू-कानून सख्त बनाने की मांग का असर ये रहा कि पहली निर्वाचित सरकार को पहली दफा कानून बनाकर भूमि की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगाने को मजबूर होना पड़ा।
राज्य ब्यूरो, देहरादून। आंदोलन की कोख से जन्मे उत्तराखंड में भूमि का मुद्दा जन भावनाओं और संवेदनाओं से सीधे जुड़ा रहा है। सरकारों पर इसका दबाव साफतौर पर देखा गया है। राज्य बनने के बाद से ही भू-कानून सख्त बनाने की मांग का असर ये रहा कि पहली निर्वाचित सरकार को पहली दफा कानून बनाकर भूमि की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगाने को मजबूर होना पड़ा। बढ़ते जन दबाव का ही असर रहा कि इसके तुरंत बाद बनी भुवनचंद्र खंडूड़ी सरकार ने राज्य के बाहर के निवासियों के लिए भूमि पर पाबंदी सख्त कर दी है। हालांकि 2017 में बाहरी निवेश को आमंत्रित करने को भूमि अधिनियम में किए गए संशोधन के बाद फिर से भूमि कानून सख्त बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है।
उत्तराखंड राज्य नौ नवंबर, 2000 को अस्तित्व में आया तो सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर भूमि की खरीद-फरोख्त पर अंकुश लगाने की मांग उठी। राज्य बनने पर उत्तराखंड में उत्तप्रदेश का भूमि अधिनियम लागू रहा। इस वजह से अन्य राज्यों के निवासियों के भूमि खरीद-फरोख्त पर पाबंदी नहीं थी। राज्य बनने के साथ ही भूमि की खरीद-फरोख्त का सिलसिला तेज हो गया था। उद्योगों के लिहाज से तब तकरीबन बेहद कमजोर स्थिति में रहे उत्तराखंड में जमीनों का धंधा परवान चढ़ा। ऐसे में तमाम संगठनों की ओर से भू-कानून सख्त बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया। परिणाम ये रहा कि प्रदेश की 2002 में बनी पहली निर्वाचित सरकार एनडी तिवारी को भूमि कानून को सख्त बनाने के लिए कदम उठाना पड़ा।
तिवारी सरकार में पाबंदी के साथ बढ़ी भूमि खरीद
तिवारी सरकार ने 2003 में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम, 1950 (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश 2001) अधिनियम की धारा 154 में संशोधन कर बाहरी व्यक्ति को आवासीय उपयोग के लिए 500 वर्गमीटर भूमि खरीदने की अनुमति दी। साथ ही कृषि भूमि की खरीद पर सशर्त पाबंदी लगा दी। 12.5 एकड़ तक कृषि भूमि खरीदने की अनुमति देने का अधिकार जिलाधिकारी को दिया गया। साथ ही चिकित्सा, स्वास्थ्य, औद्योगिक उपयोग के लिए भूमि खरीदने की सरकार से अनुमति लेने की व्यवस्था बनाई गई। इसके साथ यह प्रतिबंध लगाया गया कि जिस प्रोजेक्ट के लिए भूमि ली गई है, उसे दो साल में पूरा करने की शर्त रखी गई। इसमें ये ढील दी गई कि प्रोजेक्ट पूरा नहीं होने की स्थिति में कारण का हवाला देकर इसमें विस्तार लिया जा सकेगा।
खंडूड़ी सरकार ने दबाव में बढ़ाई सख्ती
तिवारी सरकार में उत्तराखंड को इंडस्ट्रियल पैकेज मिला तो औद्योगिक उपयोग के लिए कृषि भूमि की बड़े पैमाने पर खरीद की गई। राज्य में बड़ी संख्या में नए उद्योग लगे। इस अवधि में भूमि की खरीद-फरोख्त ज्यादा हुई। इस दौरान अन्य उपयोग के लिए ली जाने वाली भूमि के व्यावसायिक रूप से आवासीय उपयोग तेज होने के मामले बढ़ने के साथ ही भूमि कानून पर सख्ती बरतने की पैरवी में कई संगठन उतर पड़े। नतीजतन तिवारी सरकार का कार्यकाल पूरा होने के बाद दूसरी निर्वाचित खंडूड़ी सरकार ने 2007 में भू-कानून में संशोधन कर उसे कुछ और सख्त बना दिया। 500 वर्गमीटर भूमि खरीद की अनुमति को घटाकर 250 वर्गमीटर कर दिया गया। हालांकि भू-कानून को लेकर पिछली तिवारी सरकार के अन्य प्रविधान बदस्तूर लागू रहे। राज्य की आवश्यकता और उद्योगों को बढ़ावा देने खासतौर पर लघु, मध्यम एवं छोटे उद्यमों की मांग को देखते हुए सरकार ने कानून को और सख्त बनाने से गुरेज ही किया।
त्रिवेंद्र सरकार ने लचीला बनाया भू-कानून
दूसरे महत्वपूर्ण संशोधन के तकरीबन 10 साल बाद प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने वर्ष 2017 में भू-कानून में अहम संशोधन किया। संशोधित भूमि अधिनियम में बाहर से पूंजी निवेश को आमंत्रित करने के लिए कृषि, बागवानी के साथ ही उद्योग, पर्यटन, ऊर्जा समेत विभिन्न व्यावसायिक व औद्योगिक उपयोग के लिए भूमि खरीद का दायरा 12.5 एकड़ से बढ़ाकर 30 एकड़ तक कर दिया। कुछ मामलों में 30 एकड़ से ज्यादा भूमि खरीदने की व्यवस्था भी है। भूमि कानून के इसी मौजूदा अधिक लचीले स्वरूप के खिलाफ इंटरनेट मीडिया पर आवाज बुलंद हो रही है।
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