ठंडे बस्ते में : उत्तराखंड में स्वास्थ्य विभाग को नहीं मिले विशेषज्ञ चिकित्सक
उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से अब तक विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी पूरी नहीं हो पाई है। राज्य में विशेषज्ञ चिकित्सकों के लिए स्वीकृत 1147 पदों के सापेक्ष केवल 493 विशेषज्ञ चिकित्सक तैनात हैं। यानी चिकित्सकों के 654 पद अभी भी खाली हैं।
विकास गुसाईं, देहरादून। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से अब तक विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी पूरी नहीं हो पाई है। राज्य में विशेषज्ञ चिकित्सकों के लिए स्वीकृत 1147 पदों के सापेक्ष केवल 493 विशेषज्ञ चिकित्सक तैनात हैं। यानी, चिकित्सकों के 654 पद अभी भी खाली हैं। विभाग के पास सीमित संख्या में जो विशेषज्ञ चिकित्सक हैं, उनमें से भी अधिसंख्य मैदानी जिलों में तैनात हैं। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देहरादून में जहां 92 फीसद विशेषज्ञ चिकित्सक तैनात हैं, तो वहीं टिहरी में इनकी संख्या मात्र 13 फीसद पर ही सिमटी हुई है। यह स्थिति तब है तब प्रदेश सरकार कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर से लडऩे का दम भर रही है। दूसरी लहर में पर्वतीय जिलों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण ही मैदानी अस्पतालों में सारे बेड फुल हो गए थे। ऐसे में अधिसंख्य मरीजों को अपने घरों पर ही इलाज कराना पड़ा था।
26 शहरों में अटकी पेयजल योजनाएं
प्रदेश में बाह्य सहायतित पेयजल योजनाओं को लेकर विभागों का रवैया जनता पर भारी पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण पेयजल के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की वित्त पोषित परियोजना है। वर्ष 2008 में एडीबी ने प्रदेश के लिए तीन हजार करोड़ रुपये की एक परियोजना मंजूर की थी। इसके तहत 31 शहरों में पेयजल लाइनें बिछाने का काम होना था और ओवहेड टैंक बनाए जाने थे। यह कार्य निजी कंपनी को सौंपा गया। कंपनी ने चिह्नित 31 शहरों में से केवल पांच, यानी देहरादून, रुड़की, नैनीताल, रामनगर और हल्द्वानी में ही एक हजार करोड़ रुपये की लागत के कार्य वर्ष 2017 तक किए। इसके बाद अचानक ही कंपनी कार्य छोड़ कर चली गई। कंपनी ने जो कार्य किए, उनकी प्रगति भी संतोषजनक नहीं रही। स्थिति यह है कि योजना के तहत मंजूर दो हजार करोड़ रुपये केंद्र को वापस भी चले गए और काम भी पूरे नहीं हुए।
पहाड़ों में निवेश की योजनाएं गायब
पर्वतीय जिलों में पलायन को रोकने के लिए 2015 में दो योजनाएं शुरू की गईं। इनमें एक योजना मेरा गांव-मेरा धन तो दूसरी योजना मेरा पहाड़-मेरा धन थी। इन योजनाओं का मकसद प्रदेश में तेजी से खाली हो रहे गांवों को आबाद करना और प्रवासी व स्थानीय निवासियों को गांव में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना था। इन योजनाओं के तहत गांव में पौधा रोपण करना और भवन बनाना भी शामिल किया गया, ताकि इन गांवों की खूबसूरती बढ़े और भवनों का इस्तेमाल पर्यटकों के लिए भी किया जा सके। इन योजनाओं का खूब प्रचार-प्रसार किया गया। शुरुआती दौर में काम भी हुआ, मगर तत्कालीन सरकार ने इसके लिए बजट की बहुत अधिक व्यवस्था नहीं की। जब तक योजना परवान चढ़ती, जब तक चुनावी वर्ष आ गया। नई सरकार आई तो उसने इन योजनाओं के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर दिए। नतीजतन ये योजनाएं बिसरा दी गई हैं।
आधुनिक कृषिकरण में सुविधाओं का अड़ंगा
पर्वतीय क्षेत्रों में गांवों से लगातार हो रहे पलायन का एक प्रमुख कारण खेती में आ रही चुनौतियां हैं। गांवों में आबादी घटने के कारण पशुपालन लगातार कम होता जा रहा है। इस कारण खेतों की जुताई के लिए बैल भी बेहद सीमित संख्या में रह गए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों के सामने आ रही इस दिक्कत को देखते हुए सरकार ने सुदूरवर्ती क्षेत्रों में पावर ट्रेलर मशीनें पहुंचाने का निर्णय लिया। इनकी खरीद पर बकायदा सब्सिडी देने की व्यवस्था की गई। प्रदर्शनियों के माध्यम से किसानों को पावर ट्रेलर से खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। बावजूद इसके यह योजना बहुत अधिक सफल नहीं हो पाई है। इसका कारण यह कि इससे खेती भले ही जल्दी हो रही है, लेकिन खर्च बढ़ रहा है। गांवों में डीजल की उचित व्यवस्था भी नहीं है। साथ ही पावर ट्रेलर को ठीक करने के लिए मैकेनिक भी उपलब्ध नहीं हैं।
यह भी पढ़ें:-भूकंप से होने वाले नुकसान को कम करने को बना है अलर्ट एप, एक मिनट में दिल्ली भी हो जाएगी सतर्क; जानें- और खासियतें