पर्व का मतलब खुशियां, सकारात्मकता और सृजनता का जीवन में प्रवाह; जानिए क्या कहते हैं पद्म भूषण डा. अनिल प्रकाश जोशी
डा. अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि पर्व का मतलब खुशियां सकारात्मकता और सृजनता का जीवन में प्रवाह होना है। यह हमारी विडंबना ही है कि हम अपने देश में मनाए जाने वाले पर्वों के असली अर्थों से दूर रहते हैं।
डॉ अनिल प्रकाश जोशी। पर्व का मतलब खुशियां, सकारात्मकता और सृजनता का जीवन में प्रवाह होना है। आज जब हम कोरोनारूपी विकट संकट के बीच जी रहे हैं तो ऐसे में दीवाली को सरलता में मनाने का संकल्प तो लेना ही होगा। डा. अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि अपने आंगन में भगवान राम और माता लक्ष्मी का वास तो सभी को चाहिए मगर यह भी समझिए इस घुटन भरे वातावरण में वे कभी नहीं आने वाले।
यह हमारी विडंबना ही है कि हम अपने देश में मनाए जाने वाले पर्वों के असली अर्थों से दूर रहते हैं। हमारे सभी पर्वों के पीछे कहीं न कहीं कोई मंतव्य और जनहित से जुड़े कई लाभ भी होते हैं और इनके अर्थ को न समझते हुए उन त्योहारों को यूं ही मना लेना हमारी मूर्खता का परिचय तो होगा ही, साथ में इनके गूढ़ भाव, जो हमारे हित में हो सकते हैं, उनसे भी हम वंचित हो जाते हैं। कुछ हद तक ये खुशियां व आनंद जुटाने का भी अवसर हो सकते है व एक-दूसरे से जुड़ने के भी, लेकिन इन पर्वों में होने वाले सीमातोड़ हल्ले व अनावश्यक दिखावा बड़े दुष्परिणामों को जन्म देते है। उदाहरण के लिए, हमारे देश के सबसे बड़े पर्वों में होली व दीवाली आते है। इन पर्वों को मनाने के पीछे अद्भुतता नजर आएगी। होली एक ऐसे समय पर आती है जब आप रंगों के बीच में नए परिवर्तन में प्रवेश करते हैं। वहीं दीवाली शीतकालीन समय पर बढ़ते अंधेरों और अमावस्य को दूर करने के संदेश देती है। पर जिस तरह से आज दीवाली मनाई जाती है वो आज हमारे लिए घातक ज्यादा सिद्ध हो रही हैं।
आतिशबाजी बनी आफत
दीवाली पर्व भगवान रामचंद्र के वनवास पूर्ण कर अयोध्या लौटने के बाद मनाया गया, दीयों से उजाले किए गए ताकि आने वाले समय में रामराज की तैयारी हो वहीं दूसरी तरफ यह माना गया कि यह लक्ष्मी के आगमन का भी दिन है। उसके लिए पूरे घर की साफ-सफाई कर लक्ष्मी के आगमन की आहुति की जाती है। दीवाली एक उल्लास, उजालों, साफ-सफाई से जुड़ा धन-धान्य होने को नमन करने का समय है। पर हमने सभी पर्वों का रूप बिगाड़ दिया है। अब जब दुनियाभर में संयुक्त राष्ट्र की रपट के अनुसार, 90 फीसद से ज्यादा लोग किसी न किसी वायु प्रदूषण की चपेट में हो तो फिर दीवाली में करोड़ों रुपये के पटाखे एक ही रात में स्वाहा करके घुटन जैसी परिस्थितियों को निमंत्रण देते हैं। इस तरह की आतिशबाजी तीन तरह के बड़े असर भी पैदा कर देती है। एक, ये कई तरह के प्रदूषण को जन्म देती है। दूसरा, कूड़े का एक नया बड़ा भंडार खड़ा कर देती है जिसको निपटाना ही एक बहुत बड़ी समस्या बन जाता है। तीसरी, बड़ी बात यह है कि लक्ष्मी यानी कि धन को फूंककर कैसे लक्ष्मी का आह्वान किया जा सकता है। यह हमारी संपन्नता का प्रतीक नहीं बल्कि इसे समाप्त करने का प्रयोजन हो सकता है। अब दिल्ली-एनसीआर और अन्य बड़े शहरों को देख लें, जहां लगातार ढेर सारा धुंआ वैसे ही हमारे फेफड़ों को क्षति पहुंचा रहा है और साथ में इसी समय पराली का धुंआ भी स्थितियां गंभीर कर देता हो तो पटाखों वाली दीवाली शरीर का दिवाला ही निकाल देगी।
शरीर में घुल रहे घातक तत्व
आतिशबाजी मात्र मनुष्य के लिए ही हानिकारक नहीं है, बल्कि जब इसका धुआं कोहरे से जुड़ता है तो स्माग बन कर फसलों के लिए भी हानिकारक हो जाता है। जब पटाखे फोड़े जाते हैं तो इसमें नाइट्रोजन आक्साइड, सलफरडाइ आक्साइड, कार्बनमोनो आक्साइड, कार्बनडाइ आक्साइड, लेड जैसे घातक तत्व हवा के साथ मिलकर घातक रूप धारण कर लेते हैं। यह हवा जो हमारे फेफड़ों में प्रवेश करती है तो और भी घातक हो जाती है। यह फेफड़े ही हैं जिनके माध्यम से रक्त में ये सारे प्रदूषित तत्व हमारे विभिन्न अंगों तक पहुंचकर उन्हें प्रभावित करते हैं। सल्फरडाइ आक्साइड की ज्यादा मात्रा जहां हमारी सांसों को अवरुद्ध करती है, तो कैडमिन एनीमिया पैदा करता है व किडनी पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तो वहीं कापर शरीर में कई तरह के अवरोध पैदा कर देता है। इसी तरह से लैड की बढ़ती मात्रा हमारे शरीर के लिए मारक सिद्ध हो जाती है। यही प्रदूषण जल के साथ मिलकर एक आवरण भी बना लेता है जिसके अन्य प्रतिकूल प्रभाव खेती फसलों पर पड़ते है। ये फिर कहीं न कहीं हमारे शरीर में भोजन के रूप में प्रवेश कर जाते हैं। इतना ही नहीं पटाखे ध्वनि प्रदूषण से भी बड़ा प्रभावित करते हैं क्योंकि इससे उत्पन्न ध्वनि 90 डेसीबल से अधिक होती है जो उड़ रहे एक हवाई जहाज के शोर के बराबर होती है। इन सबके अलावा देश कूड़े की मार पहले से ही झेल रहा है, उसमें एक नए सिरे से कूड़ा जमा कर देना शायद हमारी नासमझी का एक और बड़ा उदाहरण होगा।
धता हुईं सब कोशिशें
ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने व न्यायपालिकाओं ने इस तरह की प्रदूषण बढ़ाती दीवाली पर अंकुश लगाने की कोशिश न की हो। लगातार सुप्रीम कोर्ट भी इसको लेकर आदेश करता रहा है और 2017-2018 में कोर्ट ने कई तरह की फटकार लगाने की भी कोशिश की कि पटाखे नहीं बिकने चाहिए। यह कोशिश 2019-2020 में भी लगातार हुई, लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि हम अपनी ही जान बचाने के लिए अगर चिंतित न हों तो नियमों को तो धता बताने में तो हम पारंगत हैं।
सरलता में निवास मां लक्ष्मी का
दीवाली एक उत्साह से जुड़ा हुआ पर्व है और अगर ये कई तरह की मुसीबतों को खड़ा करता हो तो स्वयं सोच लीजिए कि इसे कैसे पर्व मान सकते हैं। पर्व का मतलब खुशियां, सकारात्मकता और सृजनता का जीवन में प्रवाह होना है। आज हम अपने पर्वों को ऐसी दिशा दे रहे हैं जो उजालों के बजाय अंधेरों में धकेलेना का काम करते है। आज जब हम एक नए संकट में पहले से ही पहुंच चुके हैं, जहां वायु प्रदूषण भी है कूड़े का भंडार भी है और इतना ही नहीं, अब हमारे बीच में जिस तरह से बिजली का संकट पैदा हो चुका है, ऐसे में आने वाली दीवाली को सरलता में मनाने का संकल्प तो लेना ही होगा। अपने आंगन में यदि भगवान राम और माता लक्ष्मी चाहिए तो समझिए इस घुटन भरे वातावरण में वे कभी नहीं आने वाले। वे प्रभु हैं, उनका वास स्वच्छ प्रकृति व बेहतर परिवेश से जुड़ा है। अब समय है कि इन बातों को समझते हुए दीवाली को सही तरीके से साधें क्योंकि अगर आने वाले समय में हम नहीं बदले तो उजालों की जगह अंधेरे ले लेंगे और ये सब इसलिए होगा क्योंकि हम पर्वों के मूल व गूढ़ भावों को समझने से कतराकर ओछे व्यवहारों में डूब गए।
(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)