यहां एक माह बाद मनाई जाती दीपावली, पंचायती आंगनों में बिखरती है लोक संस्कृति की छटा

देशभर में अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए विख्यात जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा बरकरार है। यहां पर देश की दीपावली के एक माह बाद दीपावली मनाने की परंपरा है। यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न रहता है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Mon, 02 Nov 2020 01:15 PM (IST) Updated:Mon, 02 Nov 2020 11:34 PM (IST)
यहां एक माह बाद मनाई जाती दीपावली, पंचायती आंगनों में बिखरती है लोक संस्कृति की छटा
जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा बरकरार है।

साहिया (देहरादून), भगत सिंह तोमर। देशभर में अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए विख्यात जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा बरकरार है। यहां पर देश की दीपावली के एक माह बाद दीपावली मनाने की परंपरा है। यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न रहता है। इस जश्‍न में न पटाखों का शोर रहता है और न ही अनावश्यक खर्च। भीमल की लकड़ी की मशाल जलाकर यह जश्न मनाया जाता है। तीन सौ से अधिक राजस्व गांवों और खेड़े मजरों के पंचायती आंगनों में ग्रामीण महिलाएं और पुरुष सामूहिक नृत्य से लोक संस्कृति की छटा बिखेरते हैं।

देहरादून जनपद के जौनसार बावर में भी दीपावली का पर्व बड़ा खास है। यहां पर दीपावली कुछ अलग अंदाज में मनाई जाती है। जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के अधिकांश गांवों में आज भी देश की दीपावली के ठीक एक माह बाद दीपावली मनाई जाती है। हालांकि, कुछ वर्षों से कई गांवों के ग्रामीण नई दीपावली भी मनाने लगे हैं, लेकिन परंपराएं पुरानी दीपावली की ही हैं। अतीत की इस परंपरा को लोग आज भी संजोए हुए हैं। इस पर्व लोग आत्मीयता ढंग से मनाते हैं, जिसमें स्थानीय उपज के व्यंजन भी मनाए जाते हैं।

एक माह बाद होता है दीपावली का जश्‍न

जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में एक माह बाद बूढ़ी दीपावली का जश्‍न मनाया जाता है, जिसे पहले दिन गांव से कुछ दूर पर परंपरा के अनुसार पतली लकड़ियों को ढेर बनाया जाता है, जबकि रात को भीमल की लकड़ियों की मशाल तैयार की जाती है। रात के समय सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल दमाऊ के साथ नाचते-गाते हुए मशाल जलाते हैं, जिसके बाद दीपावली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं, जबकि दूसरे दिन गांव के पंचायती आंगन में अलाव जला दिया जाता है।

भिरुड़ी मनाने की परंपरा 

लोग पंचायती आंगन में आकर भिरुड़ी मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। भिरुड़ी बूढी दीपावली का खास अवसर होता है, जब हर घर के लोग पंचायती आंगन में अपने ईष्ठ देवता के नाम के अखरोट एकत्र करते हैं। साथ ही दि‍वाली के गीत गाते हैं। गीत के बाद पंचायती आंगन में गांव का मुखिया अखरोट बिखेरता है। प्रसाद रूप में फेंके गए अखरोट को पाने को ग्रामीण अपनी क्षमता अनुसार उठाते हैं। 

सामूहिक रूप से लोक नृत्य की परंपरा

पंचायती आंगन में महिलाएं सामूहिक रूप से हारुल, झेंता, रासो और नाटी पर परंपरागत लोक नृत्य प्रस्तुत करती हैं। सबसे खास बात यह है कि यहां पर आयोजन में महिला हो या पुरुष अपने परंपरागत परिधान ही पहनते हैं और मैदानी इलाकों की तरह पर्व को अलग अलग न मनाकर सामूहिक रूप से मनाते हैं।

खास व्‍यंजन है चिवड़ा

चिवड़ा दीपावली का खास व्यंजन है। इसे तैयार करने के लिए पहले धान को भिगोया जाता है। बाद में इसे भूनकर ओखली में कूटा जाता है, जिससे चावला पतला हो जाता है और भूसा अलग करने के बाद चिवड़ा तैयार हो जाता है। चिवड़ा को स्थानीय लोग बड़े चाव से खाते हैं। जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में अतिथि देवो भव: की परंपरा का निर्वाह करते हुए मेहमान की भी खूब मेहमाननवाजी होती है। 

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