महज नूराकुश्‍ती या फिर होगी एक और टूट

विधानसभा चुनाव से ऐन पहले उत्‍तराखंड में कांग्रेस अपने सबसे कद्दावर नेता के तेवरों से सहमी हुई है। पार्टी के राष्‍ट्रीय महासचिव और उत्‍तराखंड के पूर्व मुख्‍यमंत्री हरीश रावत जिन्‍हें उनके नजदीकी हरदा पुकारते हैं। जानिए वे इसबार किस बात को लेकर अड़ गए हैं।

By Raksha PanthriEdited By: Publish:Sun, 17 Jan 2021 01:33 PM (IST) Updated:Sun, 17 Jan 2021 01:33 PM (IST)
महज नूराकुश्‍ती या फिर होगी एक और टूट
महज नूराकुश्‍ती या फिर होगी एक और टूट।

राज्‍य ब्‍यूरो, देहरादून। विधानसभा चुनाव से ऐन पहले उत्‍तराखंड में कांग्रेस अपने सबसे कद्दावर नेता के तेवरों से सहमी हुई है। पार्टी के राष्‍ट्रीय महासचिव और उत्‍तराखंड के पूर्व मुख्‍यमंत्री हरीश रावत, जिन्‍हें उनके नजदीकी हरदा पुकारते हैं, इस बात पर अड़ गए हैं कि पार्टी अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्‍यमंत्री के चेहरे के साथ जाए। पार्टी आलाकमान अगर इस सुझाव को मान लेता है, तो लाजिमी तौर पर वही कांग्रेस का चेहरा होंगे, क्‍योंकि उनके अलावा फिलहाल कांग्रेस के पास पूरे राज्‍य में व्‍यापक जनाधार रखने वाला नेता है ही नहीं। इस बात को कांग्रेस के अन्‍य सूबाई दिग्‍गज भी समझ रहे हैं और इसी वजह से हरदा के खिलाफ पार्टी के अंदर ही मोर्चा खुल गया है। हालांकि सियासी गलियारों में इसे केवल कांग्रेस में दबाव की रणनीति के तहत चल रही नूराकुश्‍ती माना जा रहा है, लेकिन कुछ लोग यह भी मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेस एक और टूट की ओर अग्रसर है।

वर्ष 2016 में कांग्रेस में बडी टूट ने दिया रावत को तगड़ा झटका

लोकसभा, राज्‍यसभा में राज्‍य का प्रतिनिधित्‍व कर चुके और केंद्र में मंत्री रहे हरीश रावत वर्ष 2014 की शुरुआत में तब उत्‍तराखंड के मुख्‍यमंत्री बने, जब कांग्रेस नेतृत्‍व ने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा को हटाकर उन्‍हें सरकार की कमान सौंपी। स्‍वाभाविक रूप से बहुगुणा को पार्टी का यह फैसला नागवार गुजरा। यह अलग बात है कि हरीश रावत मुख्‍यमंत्री बनने के बाद पार्टी के अन्‍य वरिष्‍ठ नेताओं से पटरी नहीं बिठा पाए। यह बड़ी वजह बनी मार्च 2016 में कांग्रेस में टूट की। तब पूर्व मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्‍व में तत्‍कालीन कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत समेत नौ विधायक भाजपा में शामिल हो गए। मई 2016 में एक और कांग्रेस विधायक ने भाजपा का दामन थाम लिया। वर्ष 2017 में तत्‍कालीन कैबिनेट मंत्री व कांग्रेस प्रदेश अध्‍यक्ष रहे यशपाल आर्य भी भाजपा में चले गए। रावत की सरकार तब बच जरूर गई थी, मगर सियासी लिहाज से यह उनके लिए बड़ा झटका साबित हुई।

विस चुनाव में हार तो केंद्र में जिम्‍मा, मगर नहीं छूटा उत्‍तराखंड

पार्टी में हुई टूट का असर वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार के रूप में सामने आया। नेतृत्‍व हरीश रावत कर रहे थे, तो इसका जिम्‍मेदार भी उन्‍हीं को ठहराया गया। खुद भी उन्‍हें दो सीटों पर शिकस्‍त खानी पड़ी। इसके बाद पार्टी में उनके विरोधी मुखर होने लगे। हरदा के हर कदम को अनावश्‍यक हस्‍तक्षेप के रूप में पेश किया जाने लगा। पार्टी आलाकमान ने इस पर उन्‍हें फिर से केंद्र की सियासत में सक्रिय करने का कदम उठाया। संगठन में अहम जिम्‍मा तो दिया ही, असम जैसे बड़े राज्‍य का प्रभार भी सौंप दिया। रावत ने इसे स्‍वीकार तो कर लिया, मगर उत्‍तराखंड का मोह उनसे छूटा नहीं। कांग्रेस में उनका कद वाकई बड़ा है, तो उत्‍तराखंड में उनकी सक्रियता उनके आड़े आने लगी। दरअसल, रावत के गुट के नेताओं का वर्चस्‍व अब भी पार्टी में कायम है। यही वजह रही कि उनके कार्यक्रमों को प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रमों के समानांतर आयोजनों के रूप में देखा जाने लगा।

सत्‍ता में बदलाव की परंपरा और आखिरी मौका है हठ की वजह

इस सबकी परिणति हरीश रावत के इस कदर तीखे तेवरों के रूप में अब सामने आई, जब कांग्रेस विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी हुई है। पार्टी के नए प्रभारी देवेंद्र यादव राजस्‍थान में अहम भूमिका निभाने के बाद अब उत्‍तराखंड में कांग्रेस की जीत की राह प्रशस्‍त करने के लिए नेताओं को एका की घुटटी पिला रहे हैं। दरअसल, इस मौके पर हरदा के इन तेवरों के मूल में दो कारण अहम माने जा सकते हैं। पहला तो यह कि अब वह उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहां वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव उनके लिए सत्‍ता में वापसी का शायद आखिरी मौका हो सकता है। दूसरा कारण यह कि उन्‍हें लगता है पिछले चार विधानसभा चुनावों की तरह सत्‍ता में बदलाव की परंपरा को मतदाता वर्ष 2022 में होने वाले पांचवें विधानसभा चुनाव में भी आगे बढाएंगे। 

वर्ष 2002, 2007, 2012 और 2017 के विधानसभा चुनाव में मतदाता ने हर बार बदलाव कर बारी-बारी कांग्रेस और भाजपा के पक्ष में फैसला सुनाया। वर्ष 2002 में हरदा ही थे चेहरा, मगर तब ताजपोशी हुई तिवारी कीहरीश रावत के मुख्‍यमंत्री का चेहरा विधानसभा चुनाव से पहले घोषित करने की मांग का पार्टी के कई वरिष्‍ठ नेता विरोध कर रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष डा इंदिरा हृदयेश ने तो हरदा पर यह तंज तक कस डाला कि वर्ष 2017 के चुनाव में हरीश रावत ही पार्टी का चेहरा थे और तब कांग्रेस केवल 11 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई।

यह कड़वी सच्‍चाई है मगर पार्टी में हरदा के विरोधी शायद इस बात को बिसरा गए कि उत्‍तराखंड के अलग राज्‍य बनने के डेढ़ साल बाद वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने तत्‍कालीन प्रदेश अध्‍यक्ष हरीश रावत के ही नेतृत्‍व में ही लड़े और अलग राज्‍य निर्माण के श्रेय पर काबिज होने के बावजूद भाजपा को सत्‍ता से बेदखल करने में कामयाबी पाई। यह बात दीगर है कि कांग्रेस आलाकमान ने रावत को दरकिनार कर बुजुर्ग नारायण दत्‍त तिवारी को मुख्‍यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। फिर वर्ष 2012 के चुनाव में भी हरदा पर कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को तरजीह दी।

क्षत्रप एक-एक कर विदा, अब केवल रावत का ही बड़ा सियासी कद

यह हरदा की शख्सियत ही है कि उत्‍तराखंड कांग्रेस में उनके समर्थकों का बड़ा खेमा है। हालांकि यह भी सच है कि पार्टी में उनके विरोधी भी बहुत ज्‍यादा हैं। वह दो बार उत्‍तराखंड में मुख्‍यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में नाकामयाब रहे, मगर फिर आलाकमान ने उन्‍हें वर्ष 2014 में मौका दे ही दिया। उत्‍तराखंड के अलग राज्‍य बनने के बाद नारायण दत्‍त तिवारी के अलावा जो दिग्‍गज कांग्रेस में थे, उनमें हरीश रावत, विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज, इंदिरा हृदयेश, यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत मुख्‍य थे। हरदा के वर्ष 2014 में मुख्‍यमंत्री बनने के बाद एक-एक कर ये सभी कांग्रेस का हाथ झटक कर भाजपा का हिस्‍सा बन गए, केवल इंदिरा हृदयेश ही अकेली वरिष्‍ठ नेता हैं, जो अब भी उनसे डटकर लोहा ले रही हैं। इनके अलावा अन्‍य नेताओं को दूसरी पांत का ही माना जाता है। यानी, फिलहाल कांग्रेस में रावत ही बड़ा चेहरा दिखते हैं और इसीलिए उन्‍होंने सोच समझ कर चुनावी चेहरे का मुददा उठाया।

हरदा के हर कदम पर सबकी नजर, आखिर भविष्‍य का सवाल जो है

हरीश रावत ने अपनी बात पार्टी नेतृत्‍व तक पहुंचाने के लिए इंटरनेट मीडिया को चुना। रोजाना उनकी फेसबुक, टि्वटर पर की गई पोस्‍ट सियासी गलियारों में चर्चा बटोरती हैं और कांग्रेस में खलबली मचाती हैं। हालांकि रावत की वरिष्‍ठता और पार्टी द्वारा उन्‍हें केंद्र से लेकर उत्‍तराखंड तक में पहले और अब दी गई तमाम अहम जिम्‍मेदारियां ऐसे कारण हैं, जिनकी मौजूदगी से इस बात की संभावना नहीं लगती कि वह नेतृत्‍व के किसी भी फैसले की अवहेलना जैसा कोई कदम उठाएंगे। इस लिहाज से हरदा के इस कदम को उनका सियासी पैंतरा और पार्टी पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्‍सा ही माना जा रहा है। वैसे सियासत में सब कुछ मुमकिन है, खासकर जब बात सुरक्षित भविष्‍य की हो। यही वजह है कि कुछ लोग कांग्रेस में इन दिनों चल रहे घमासान को वर्ष 2016 की टूट की अगली कड़ी के रूप में भी देख रहे हैं। देखते रहिए, अगले कुछ दिनों में काफी कुछ साफ हो जाएगा। 

यह भी पढ़ें-  उत्तराखंड: हरीश रावत ने ली चुटकी, कहा- नाश्ते की टेबल पर हंसने का मसाला देते हैं भगत

chat bot
आपका साथी