केंद्रपोषित योजनाओं के बजट उपयोग की चुनौती, हर साल नहीं हो पा रहा करोड़ों की धनराशि का उपयोग

विशेष दर्जे की हैसियत की वजह से उत्तराखंड को केंद्रीय योजनाओं और बाह्य सहायतित योजनाओं में सालाना 8000 करोड़ से लेकर 9000 करोड़ रुपये तक बड़ी वित्तीय मदद मिल रही है। हालांकि सरकारें अब तक केंद्र से मिलने वाली वित्तीय मदद का सौ फीसद उपयोग नहीं कर पा रही हैं।

By Raksha PanthriEdited By: Publish:Sun, 26 Sep 2021 12:01 PM (IST) Updated:Sun, 26 Sep 2021 12:01 PM (IST)
केंद्रपोषित योजनाओं के बजट उपयोग की चुनौती, हर साल नहीं हो पा रहा करोड़ों की धनराशि का उपयोग
केंद्रपोषित योजनाओं के बजट उपयोग की चुनौती।

रविंद्र बड़थ्वाल, देहरादून। विकास की जिन आकांक्षाओं को लेकर उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ, उसका पूरा दारोमदार अब केंद्रपोषित योजनाओं पर आ गया है। इसकी वजह राज्य के पास अपने खुद के संसाधन विकास के लिए कम पड़ रहे हैं। विशेष दर्जे की हैसियत की वजह से उत्तराखंड को केंद्रीय योजनाओं और बाह्य सहायतित योजनाओं में सालाना 8000 करोड़ से लेकर 9000 करोड़ रुपये तक बड़ी वित्तीय मदद मिल रही है। हालांकि, सरकारें अब तक केंद्र से मिलने वाली वित्तीय मदद का तमाम कारणों से सौ फीसद उपयोग नहीं कर पा रही हैं। हर साल करोड़ों की धनराशि का उपयोग नहीं हो पा रहा है।

उत्तराखंड को विशेष दर्जे की वजह से केंद्र सरकार की 17 केंद्रपोषित योजनाओं में 90:10 के अनुपात में वित्तीय मदद मिल रही है। इसमें 90 फीसद केंद्रीय अनुदान और 10 फीसद राज्य की हिस्सेदारी है। शेष 11 योजनाओं के लिए 80:20 के अनुपात में मदद मिल रही है। समग्र शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान, स्वास्थ्य योजनाओं में कार्मिकों के वेतन मद में भी आंशिक वित्तीय मदद मिल रही है। साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, शहरी विकास, आजीविका, पुलिस आधुनिकीकरण समेत अवस्थापना विकास के लिए केंद्रपोषित योजनाओं के माध्यम से वित्तीय मदद मिल रही है। सात केंद्रपोषित योजनाओं में 100 फीसद केंद्रीय अनुदान मिल रहा है।

वन भूमि क्लीयरेंस का फंसता है पेच

अब केंद्रपोषित योजनाओं में ज्यादा केंद्रीय अनुदान के रूप में राज्य को सहायता मिल रही है, लेकिन इस मदद का राज्य भरपूर उपयोग नहीं कर पा रहा है, इसकी वजह सरकार और विभागों में इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, वन एवं पर्यावरणीय बंदिशें भी हैं, भूमि या वन भूमि के मसले पर क्लीयरेंस मिलने में लंबा वक्त जाया हो जाता है। 2017 के बाद केंद्रपोषित योजनाओं और बाह्य सहायतित योजनाओं के बजट का अपेक्षाकृत अधिक इस्तेमाल हुआ है। कोरोना महामारी के दौर में भी इन दोनों ही योजनाओं में खर्च की प्रगति अच्छी रही। बावजूद इसके 2100 करोड़ की धनराशि खर्च नहीं की जा सकी।

अब नहीं मिलती अतिरिक्त वित्तीय मदद

विशेष दर्जे के रूप में ब्लाक ग्रांट, विशेष आयोजनागत सहायता और अतिरिक्त केंद्रीय सहायता मद में मिलने वाली वित्तीय मदद को 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर खत्म किया जा चुका है।

17 केंद्रपोषित योजनाओं में 90:10 अनुपात में मिल रही मदद

-कृषि उन्नति योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय पशुधन विकास योजना (लाइवस्टाक मिशन, वेटरनरी सॢवसेज, डेयरी डेवलपमेंट), स्वच्छ भारत अभियान, नेशनल हेल्थ मिशन, नेशनल रूरल ड्रिकिंग वाटर, नेशनल एजुकेशन मिशन, हाउसिंग फार आल (ग्रामीण एवं शहरी), आइसीडीएस, इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम, मिड डे मील, नेशनल लाइवलीहुड मिशन (ग्रामीण एवं शहरी), वानिकी एवं वन्य जीवन (ग्रीन इंडिया मिशन, ट्राइगर प्रोजेक्ट, प्रोजेक्ट एलीफेंट), अरबन रीजुवनेशन (अमृत) एंड स्मार्ट सिटीज मिशन, पुलिस आधुनिकीकरण, न्याय व्यवस्था के लिए ढांचागत सुविधाएं।

अनियंत्रित होते खर्चों पर लगानी होगी लगाम

पूर्व मुख्य सचिव और वित्त विशेषज्ञ इंदु कुमार पांडेय का कहना है कि उत्तराखंड के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। ढांचागत विकास पर खर्च के लिए राज्य के पास धन नहीं है, जबकि गैर जरूरी खर्चे अनियंत्रित तरीके से बढ़ रहे हैं। राज्य के दूरस्थ इलाके में भी आम आदमी के जीवन में खुशहाली और सुकून तभी आएंगे, जब ढांचागत विकास की गति तेज होगी। तब ही रोजगार के नए अवसर और आजीविका के संसाधनों का विकास होगा। राज्य का ज्यादातर बजट प्रतिबद्ध मदों में वेतन-भत्ते और लिए गए कर्ज के ब्याज की अदायगी में खर्च हो रहा है।

ब्याज अदायगी से पीछे हटा ही नहीं जा सकता। जाहिर है कि वेतन-भत्तों पर बढ़ते खर्च को नियंत्रित करने के लिए विभागों का पुनर्गठन बेहद आवश्यक है। गैर जरूरी और फिजूलखर्ची पर सख्ती से अंकुश लगाया जाना चाहिए। यह प्रवृत्ति जिस तेजी से बढ़ रही है, चिंताजनक है। राज्य को अपने संसाधनों को बढ़ाने पर पूरी ताकत से जुटना होगा। खनन क्षेत्र से आमदनी बढ़ने की संभावनाएं हैं। इसके लिए अवैध खनन को रोकने और उपयोगी खनन को बढ़ावा देने के लिए नियोजित व्यवस्था बनाने की दरकार है। वन राज्य की संपदा है, लेकिन वनोपज से आमदनी को लेकर सुस्ती टूट नहीं रही। इसका आकलन जरूरी हो गया है।

इसके साथ ही यूजर चार्जेज बढ़ाए जाने चाहिए। सरकारें ऐसा फैसला लेने से कन्नी काटती हैं। बेहतर सेवाएं देकर यूजर चार्जेज लिए जाएं तो आम जन को मलाल नहीं होगा। नए मेडिकल कालेज खोले गए हैं, इनमें यूजर चार्जेज वसूल करने से बचा गया तो बाद में ये कालेज राज्य के लिए बड़ा बोझ बनकर रह जाएंगे। अगले साल से जीएसटी क्षतिपुर्ति राज्य को नहीं मिली तो परेशानी में बड़ा इजाफा होना तय है।

खर्चों को गुणवत्ता से जोड़ना बेहद जरूरी

पूर्व मुख्य सचिव और वित्त विशेषज्ञ आलोक जैन का कहना है कि उत्तराखंड धीरे-धीरे आर्थिक रूप से दिवालिया होने की ओर बढ़ रहा है। 20 वर्षों में राज्य अपनी आमदनी में पर्याप्त इजाफा नहीं कर पाया, जबकि इस दौरान खर्च खासतौर पर गैर विकास मदों में खर्च कई गुना बढ़ चुका है। राज्य के भीतर होने वाला खर्च यदि गुणवत्ता के लिहाज से बेहतर है तो ऐसे खर्च का लाभ मिलना तय है। सुशासन की पूरी व्यवस्था गुणवत्तापरक खर्च में है। इसे बढ़ावा मिलना चाहिए। सरकारी कामकाज, निर्माण कार्य, ठेकेदारी में दक्षता को प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है। लोभ से ग्रस्त मानसिकता दक्षता के उचित प्रोत्साहन में आड़े आती है। इस बारे में गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

यह राजनीतिक प्रतिबद्धता का विषय होना चाहिए। राज्य का अधिकतर हिस्सा पर्वतीय है, लेकिन कई साल गुजरने के बावजूद शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरतों में गुणात्मक सुधार का लाभ पर्वतीय क्षेत्र को नहीं हो रहा है। पहाड़ में शिक्षक नहीं जाएगा तो स्थानीय बच्चों को अच्छी शिक्षा कैसे मिल सकेगी। शिक्षकों समेत मशीनरी को इन क्षेत्रों में ठहरना होगा। प्रतिबद्ध मदों पर होने वाले खर्च का प्रयोजन तब ही सिद्ध हो पाएगा।

राज्य को लकवाग्रस्त होने से बचाने को जरूरी है कि सिर्फ आर्थिक रूप से बोझ बढ़ाने वाली लुभावनी घोषणाओं से बचा जाए। राजनीतिक दलों में ये होड़ लगी रहती है। केंद्रीय योजनाओं और राज्य की अपनी योजनाओं को समय पर पूरा करने का संकल्प वक्त की जरूरत है। योजनाओं में देरी, उनकी लागत को बढ़ा देती है। फिर अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। सभी निर्माण कार्यों को शुरू करने से पहले जरूरी तैयारी पूरी होनी चाहिए। विभागों के लिए यह जरूरी लक्ष्य होना चाहिए।

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बजट समय पर जारी हो तो खर्च भी तेजी से होगा

अर्थशास्त्री और एसजीआरआर पीजी कालेज के प्राचार्य डा विनय आनंद बौड़ाई का कहना है कि बजट का सदुपयोग इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसके निर्माण में कितनी सावधानी बरती गई है। राज्य की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए यह भी जरूरी है कि नीतिगत फैसले समय पर और त्वरित गति से लिए जाएं। बजट जितना समय पर जारी होगा, समयबद्ध तरीके से खर्चं करने में सहूलियत होगी। अन्यथा लागत बढ़ने से निर्माण कार्यों का इस्टीमेट संशोधित करने की नौबत होती है और बजट का उपयोग समय पर नहीं हो पाता है। कई दफा अनदेखी स्थिति की वजह से भी बजट के इस्तेमाल में देरी हो सकती है। कोरोना महामारी का यह काल ऐसा ही है।

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