उत्तराखंड में हर साल मानसून में खस्ताहाल सड़कें, स्थायी समाधान के लिए बने ठोस कार्ययोजना

मानसून सीजन में सड़कें खस्ताहाल हैं। हर वर्ष ये समस्या चुनौती बनती है लेकिन इसका स्थायी समाधान नहीं तलाशा जा सका। इसके समाधान के लिए ठोस कार्ययोजना तैयार होनी जरूरी है। इस कारण लोगों को होती है काफी परेशानी।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Thu, 05 Aug 2021 12:59 PM (IST) Updated:Thu, 05 Aug 2021 12:59 PM (IST)
उत्तराखंड में हर साल मानसून में खस्ताहाल सड़कें, स्थायी समाधान के लिए बने ठोस कार्ययोजना
उत्तराखंड में मानसून में खस्ताहाल सड़कें।(फोटो: दैनिक जागरण)

देहरादून, स्टेट ब्यूरो। उत्तराखंड में मानसून के रफ्तार पकड़ते ही चुनौती बढ़ती जा रही है। बारिश के साथ भू-धंसाव और भू-कटाव से ग्रामीण क्षेत्रों में कई मकान खतरे की जद में हैं तो सड़कें खस्ताहाल हो चुकी हैं। उत्तरकाशी जिले के मस्ताड़ी गांव में कई परिवार अब अपने घरों में लौटने को तैयार नहीं हैं। फिलहाल वे टेंट में रहकर जीवनयापन कर रहे हैं। गांव के लोग सरकार से विस्थापन की मांग भी करने लगे हैं। पिछले दिनों इस क्षेत्र में बादल फटने से तीन व्यक्तियों की मौत हो गई थी। इसके साथ ही प्रदेश में भूस्खलन के चलते अब भी 100 से ज्यादा सड़कें बंद हैं। चीन और नेपाल सीमा से अंतरराष्ट्रीय सीमाएं साझा करने वाले उत्तराखंड में यह स्थिति चिंताजनक ही कही जाएगी। हालत यह है कि पिथौरागढ़ जिले में चीन सीमा को जोड़ने वाला मार्ग कई सप्ताह तक मलबे से अटा रहता है। यही स्थिति चमोली जिले में भारत की अंतिम पोस्ट रिमखिम को जोड़ने वाले मलारी हाईवे की भी है।

इस मानसून सीजन में शायद ही कोई सड़क हो जो छलनी न हुई हो। बात चाहे राष्ट्रीय राजमार्गो की हो, राज्य अथवा ग्रामीण सड़कों की। बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्गो पर आवाजाही मुश्किल होती जा रही है। लेकिन इनसे भी ज्यादा खराब स्थिति ग्रामीण सड़कों की है। मलबा आने की स्थिति में राष्ट्रीय राजमार्गो को लेकर सिस्टम तत्काल सक्रिय हो जाता है, लेकिन संपर्क मार्ग हफ्तों तक बंद रहते हैं। यही वजह है कि सैकड़ों गांव में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित रहती है। आलम यह है कि ग्रामीण किसी बीमार को अस्पताल पहुंचाने के लिए डंडी का सहारा ले रहे हैं और उन्हें कई बार 15-16 किलोमीटर की दूरी पैदल ही नापनी पड़ रही है। बात सिर्फ ग्रामीण सड़कों की ही नहीं है, शहरी क्षेत्रों में भी हालात सामान्य नहीं हैं। जगह-जगह सड़कों पर पड़े गड्ढे दुर्घटनाओं को आमंत्रण दे रहे हैं। इनमें से कई सड़कें ऐसी हैं, जिनकी मरम्मत मानसून शुरू होने से पहले ही की गई।

ऐसे में सवाल उठता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में यदि छलनी सड़कों के लिए कुदरत जिम्मेदार है तो शहरों में यह जिम्मेदारी किसकी मानी जाए। सवाल यह भी है कि कंक्रीट और तारकोल से निर्मित सड़क की आयु तय होती है। ऐसे में ये सड़कें अपनी निर्धारित आयु पूरी होने से पहले कैसे खराब हो जाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुदरत के कोप पर अंकुश लगाना संभव नहीं है, लेकिन डेंजर जोन और भूस्खलन प्रभावित जोन का स्थायी उपचार कर समस्या से निजात पाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए ठोस कार्ययोजना बनाने की जरूरत है।

मानसून सीजन में सड़कें खस्ताहाल हैं। हर वर्ष ये समस्या चुनौती बनती है, लेकिन इसका स्थायी समाधान नहीं तलाशा जा सका। इसके समाधान के लिए ठोस कार्ययोजना तैयार हो

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