Uttarakhand Glacier Disaster: हिमखंडों और पहाड़ों का सब्र इसी तरह टूटता रहा तो आपदाएं भी आती रहेंगी

Uttarakhand Glacier Disaster केदारनाथ त्रसदी के लगभग साढ़े सात साल बाद उत्तराखंड में रविवार को एक बार फिर भयावह तबाही का दृश्य सामने आया जो यह दर्शाता है कि हमने उस घटना से सबक नहीं लिया लिहाजा आधुनिक विकास के साथ हमें पर्यावरण संतुलन पर भी ध्यान देना होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 09 Feb 2021 10:01 AM (IST) Updated:Tue, 09 Feb 2021 02:29 PM (IST)
Uttarakhand Glacier Disaster: हिमखंडों और पहाड़ों का सब्र इसी तरह टूटता रहा तो आपदाएं भी आती रहेंगी
उत्तराखंड के चमोली जिले में धौलीगंगा नदी पर बन रहे तपोवन हाइडल प्रोजेक्ट के पास पहुंचे स्थानीय निवासी। फाइल

प्रमोद भार्गव। सामान्य तौर पर हिमखंड ठंड के मौसम में नहीं टूटते हैं इसलिए उत्तराखंड में रविवार को आई आपदा को प्राकृतिक घटना की बजाय, मानव जनित आपदा माना जा रहा है। हालांकि इलाके के लोगों को पहले से ही इस तरह का हादसा होने की आशंका थी, इसलिए 2019 में नंदा देवी संरक्षित क्षेत्र में बन रहे बांधों को रोकने के लिए अदालत का रुख किया था।

कुछ समय पहले ही गोमुख के विशाल हिमखंड का एक हिस्सा टूटकर गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। इन टुकड़ों को गोमुख से 18 किमी दूर गंगोत्री के तेज प्रवाह में बहते देखा गया। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के वनाधिकारी ने इस हिमखंड के टुकड़ों के चित्रों से इसके टूटने की पुष्टि की थी। हालांकि इस तरह के जल प्रलय का संकेत वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान द्वारा दिया जा चुका था। संस्थान द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक ऋषिगंगा अधिग्रहण क्षेत्र के आठ से अधिक हिमखंड सामान्य से अधिक रफ्तार से पिघल रहे थे। यही जल आगे जाकर धौलीगंगा, विष्णुगंगा और अलकनंदा में प्रवाहित होता है। ये सब गंगा की सहायक नदियां हैं। इसीलिए यूनेस्को ने भी इस पूरे क्षेत्र को आरक्षित घोषित किया हुआ है। यहां 6,500 मीटर ऊंची हिमालय की चोटियां हैं।

इन खड़े शिखरों पर जो हिमखंड हजारों साल की प्राकृतिक प्रक्रिया के चलते बनने के बाद टूटते हैं तो अत्यंत घातक साबित होते हैं। वर्ष 1970 से लेकर 2017 तक इस क्षेत्र में जो अध्ययन हुए हैं, उनसे पता चला है कि आठ हिमखंड बीते 37 साल में 26 वर्ग किमी से ज्यादा पिघल चुके हैं। यह अध्ययन इसलिए विश्वसनीय है, क्योंकि उपग्रह चित्रों के अलावा जमीनी सर्वेक्षण में भी यह सही पाया गया। इन हिमखंडों का जो आकार 37 साल पहले था, उसमें से 10 फीसद भाग पिघल चुका है।

हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को विज्ञानी फिलहाल साधारण घटना मानकर चल रहे थे। उनका मानना था कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखंडों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखंड टूटने लग गए। उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखंडों को कमजोर करने का काम किया है। आंच और धुएं से बर्फीली शिलाओं के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलती चली गई। इस कारण दरारें भर नहीं पाईं। कार्बन यदि शिलाओं पर जमा रहता है तो भविष्य में नई बर्फ जमने की उम्मीद कम हो जाती है।

शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखंड पिघलकर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। लेकिन भूमंडलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को बढ़ा दिया है। एक शताब्दी पूर्व भी हिमखंड पिघलते थे, लेकिन बर्फ गिरने के बाद इनका दायरा निरंतर बढ़ता रहता था। इसीलिए गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रवाह बना रहा। किंतु 1950 के बाद से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना शुरू हो गया था। वर्ष 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई। इसके बाद से गंगोत्री के हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं।

भारतीय हिमालय में करीब 9,975 हिमखंड हैं। इनमें 900 उत्तराखंड में आते हैं। इन हिमखंडों से ही ज्यादातर नदियां निकली हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को पेयजल, सिंचाई व आजीविका के अनेक संसाधन उपलब्ध कराती हैं। किंतु इन हिमखंडों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही 50 करोड़ आबादी को रोजगार व आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके।

बढ़ते तापमान के चलते अंटार्कटिका के हिमखंड भी टूट रहे हैं। इनके पिघलने और बर्फ के कम होने की खबरें निरंतर आ रही हैं। यूएस नेशनल एंड आइस डाटा सेंटर ने उपग्रह के जरिये जो चित्र हासिल किए गए हैं, उनसे ज्ञात हुआ है कि एक जून 2016 तक यहां 111 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी, जबकि वर्ष 2015 में यहां औसतन 127 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी।

पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास के आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का हिस्सा, रूस का एक हिस्सा, अमेरिका का अलास्का, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं। इस क्षेत्र में समुद्री गर्मी निरंतर बढ़ने से अनुमान लगाया जा रहा है कि कुछ वर्षो में यह बर्फ भी पूरी तरह खत्म हो जाएगी। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के पोलर ओशन फिजिक्स समूह के मुख्य प्राध्यापक पीटर वैडहैम्स का दावा है कि आर्कटिक क्षेत्र के केंद्रीय भाग और उत्तरी क्षेत्र में बर्फ अगले कुछ वर्षो में पिघल जाएगी। अभी तक आर्कटिक में 900 घन किमी बर्फ पिघल चुकी है। ब्रिटेन और अमेरिका में आ रही बाढ़ों का कारण इसी बर्फ का पिघलना माना जा रहा है। यदि यहां की बर्फ वाकई खत्म हो जाती है तो दुनियाभर में तापमान तेजी से बढ़ जाएगा। मौसम में कई तरह के आकस्मिक बदलाव होंगे। जैसे कि हम उत्तराखंड में बादलों के फटने और हिमखंडों के टूटने की घटनाओं के रूप में देख रहे हैं।

बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, बावजूद हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय के तौर पर औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक ऐसा कर सकते हैं। पर्यटन के रूप में इंसानों की जो आवाजाही बढ़ रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा वाकई हम अपनी बर्फीली शिलाओं को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हमारी सनातन ज्ञान परंपरा में हिमखंडों के सुरक्षा के जो उपाय उपलब्ध हैं, उन्हें भी महत्व देना होगा। बहरहाल, हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को गंभीरता से लेने की जरूरत तो है ही, पहाड़ों को चीरकर बांध और सड़कों के चौड़ीकरण की प्रक्रिया को संतुलित होकर अंजाम देना होगा। अन्यथा हिमखंडों और पहाड़ों का सब्र इसी तरह टूटता रहा तो आपदाएं भी आती रहेंगी।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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