हरिद्वार से ब्रह्मपुर होते हुए बदरीनाथ पहुंचे थे शंकराचार्य

आदि शकराचार्य सनातन धर्म के पुनरुत्थान को उस कालखंड में कालड़ी (केरल) से उत्तराखंड पहुंचे थे जब ऐसी दुरुह यात्रा की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 17 May 2021 03:00 AM (IST) Updated:Mon, 17 May 2021 03:00 AM (IST)
हरिद्वार से ब्रह्मपुर होते हुए बदरीनाथ पहुंचे थे शंकराचार्य
हरिद्वार से ब्रह्मपुर होते हुए बदरीनाथ पहुंचे थे शंकराचार्य

देवेंद्र रावत, गोपेश्वर

आदि शकराचार्य सनातन धर्म के पुनरुत्थान को उस कालखंड में कालड़ी (केरल) से उत्तराखंड पहुंचे थे, जब ऐसी दुरुह यात्रा की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। इतिहासकारों के अनुसार महज आठ वर्ष की आयु में संन्यास लेने के बाद अपने गुरु गोविंद भगवत्पाद की आज्ञा से शकराचार्य ने घर छोड़ दिया। काशी पहुंचने पर शकराचार्य कुछ समय वहा राजा सुधन्वा के संरक्षण में रहे, जो स्वयं सनातन धर्म के पुनरुत्थान में जुटे हुए थे। कहते हैं कि राजा सुधन्वा ने ही शकराचार्य के उत्तराखंड भ्रमण की व्यवस्था की थी। शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ माना जाता है।

गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर से सेवानिवृत्त प्रख्यात इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद नैथानी अपने शोध में लिखते हैं, शकराचार्य आठवीं सदी के आखिर में काशी से धर्म प्रचार करते हुए हरिद्वार पहुंचे। यहा गंगा तट पर पूजा-अर्चना के बाद उन्होंने ऋषिकेश स्थित भरत मंदिर के गर्भगृह में श्रीविष्णु का शालिग्राम विग्रह स्थापित किया। मंदिर में रखा श्रीयंत्र उनके ऋषिकेश आगमन का गवाह है। डॉ. नैथानी के अनुसार ऋषिकेश से शंकराचार्य 35 किमी दूर व्यासचट्टी में गंगा पार कर ब्रह्मपुर (बछेलीखाल) पहुंचे। बताते हैं कि ब्रह्मपुर से देवप्रयाग पहुंचकर संगम पर उन्होंने गंगा स्तुति की और फिर श्रीनगर (गढ़वाल) की ओर बढ़ गए। श्रीनगर में उन्होंने शक्ति की उपासना की और फिर अलकनंदा नदी के दायें तट मार्ग से नंदप्रयाग पहुंचे।

डॉ.नैथानी लिखते हैं कि नंदप्रयाग से शकराचार्य जोशीमठ पहुंचे और वहा कल्पवृक्ष के नीचे साधना करने लगे। यहीं उन्हें दिव्य ज्योति के दर्शन हुए। जोशीमठ में ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना के बाद उन्होंने बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया। बदरीनाथ में ही शकराचार्य ने 'ब्रह्मसूत्र' पर 'शाकर भाष्य' की रचना कर भारतभूमि को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया। 'शकर दिग्विजय', 'शकर विजय विलास', 'शकर जय' आदि ग्रंथों में इसका उल्लेख हुआ है। 820 ईस्वी में यहां से शकराचार्य केदारनाथ पहुंचे और 32 वर्ष की आयु में वहीं समाधि ली।

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शुरू किया था मुखौटा नृत्य

बदरीनाथ के धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल बताते हैं कि केदारखंड यात्रा के दौरान शकराचार्य के साथ आए उनके शिष्यों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए जोशीमठ क्षेत्र में मुखौटा देव नृत्य भी शुरू किया था। आज भी जोशीमठ क्षेत्र में रम्माण (रामायण) सहित अन्य देवी-देवताओं के मुखौटा नृत्य होते हैं। रम्माण को विश्व धरोहर का दर्जा हासिल है।

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केदारनाथ में शकराचार्य की समाधि का पुनíनर्माण

2013 की केदारनाथ आपदा में शकराचार्य की समाधि भी बह गई थी। अब मंदिर से 70 मीटर पीछे उसी स्थान पर 1400 वर्ग मीटर क्षेत्र में 15 करोड़ की लागत से समाधि का पुनर्निर्माण हो रहा है। यह समाधि सतह से पाच मीटर नीचे एक गुफा में होगी। यहा तक पहुंचने के लिए मंदिर के पीछे से 60 मीटर रास्ता सीधा और दस मीटर स्लोप वाला होगा। समाधि पर 25 एमएम मोटाई का 400 टन सरिया इस्तेमाल हो रहा है।

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फोटो परिचय

16जीओपीपी 2 : जोशीमठ स्थित ज्योतिर्मठ पीठ।

(फोटो : देवस्थानम बोर्ड)

16आरडीपी 4 : केदारनाथ में हो रहा शकराचार्य की समाधि का पुनíनर्माण।

(फोटो: वुड स्टोन कंस्ट्रक्शन कंपनी)

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