सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति बोले - 'श्राद्ध कर्म तर्पण से जीवन के यथार्थ पक्ष मजबूत होते हैं'

श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया देवताओं ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Mon, 20 Sep 2021 05:08 PM (IST) Updated:Mon, 20 Sep 2021 05:33 PM (IST)
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति बोले - 'श्राद्ध कर्म तर्पण से जीवन के यथार्थ पक्ष मजबूत होते हैं'
तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं

वाराणसी, जागरण संवाददाता। ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।। पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, के कुलपति प्रो हरेराम त्रिपाठी ने यजुर्वेद के अनुसार बताया कि 'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद-

श्राद्ध और तर्पण का अर्थ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता, पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह पितृयज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति और सन्तान की सही शिक्षा-दीक्षा से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।

वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं-

(1) ब्रह्म यज्ञ

(2) देव यज्ञ

(3) पितृयज्ञ

(4) वैश्वदेव यज्ञ

(5) अतिथि यज्ञ।

उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञ में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।

श्राद्ध कर्म का समय : पितृयज्ञ या श्राद्धकर्म के लिए अश्विन माह का कृष्ण पक्ष ही नियुक्त किया गया है। सूर्य के कन्या राशि में रहते समय आश्विन कृष्ण पक्ष पितर पक्ष कहलाता है। जो इस पक्ष तथा देहत्याग की तिथि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है उस श्राद्ध से पितर तृप्त हो जाते हैं।

कन्या राशि में सूर्य रहने पर भी जब श्राद्ध नहीं होता तो पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में श्राद्ध का इंतजार करते हैं और तब भी न हो तो सूर्य देव के वृश्चिक राशि पर आने पर पितर निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं।

श्राद्ध कर्म के प्रकार : नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिंडन, गोष्ठ, शुद्धि, कर्मांग, दैविक, यात्रा और पुष्टि।

तर्पण कर्म के प्रकार : पुराणों में तर्पण को छह भागों में विभक्त किया गया है:-

1.देव-तर्पण

2.ऋषि-तर्पण 3.दिव्य-मानव-तर्पण 4.दिव्य-पितृ-तर्पण 5.यम-तर्पण 6.मनुष्य-पितृ-तर्पण।

श्राद्ध के नियम : श्राद्ध पक्ष में व्यसन और मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। पूर्णत: पवित्र रहकर ही श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। रात्रि में श्राद्ध नहीं किया जाता। श्राद्ध का समय दोपहर साढे बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अन्न का अंश निकालते हैं क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं।

लाभ :

।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छादम्।।

भावार्थ : श्रद्धा से श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

व्याख्या : वेदों अनुसार इससे पितृऋण चुकता होता है। पुराणों के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं। संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।

मृत्यु के बाद : व्यक्ति जब देह छोड़ता है तो जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति की स्थिति अनुसार तीन दिन के भीतर वह पितृलोक चला जाता है। इसीलिए 'तीज' मनाई जाती है। कुछ आत्माएं 13 दिन में पितृलोक चली जाती हैं, इसीलिए त्रयोदशाकर्म किया जाता है और कुछ सवा माह अर्थात 37वें या 40वें दिन। फिर एक वर्ष पश्चात तर्पण किया जाता है। पितृलोक के बाद उन्हें पुन: धरती पर कर्मानुसार जन्म मिलता है या वे ध्यानमार्गी रही हैं तो वे जन्म-मरण के चक्र से मु‍क्त हो जाती हैं।

हमारे जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार एक वर्ष पश्चात 'गया' में मुक्ति-तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। गया के अतिरिक्त और कहीं भी यह कर्म नहीं होता है। उक्त स्थान का विशेष वैज्ञानिक महत्व है।

पितरों का पितृलोक : धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यह आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहते हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।

अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

पितरों का आगमन : सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र (वस्य) का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्धपक्ष की अवावस्या तिथि का महत्व भी है।

अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतीपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।

पितरों का परिचय : पुराणा अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है। अत: यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रथान हैं।

अर्यमा : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।

पितृदोष से मुक्ति: पूर्वजों के कार्यों के फलस्वरूप आने वाली पीढ़ी पर पड़ने वाले अशुभ प्रभाव को पितृदोष कहते हैं। पितृदोष का अर्थ यह नहीं कि कोई पितृ अतृप्त होकर आपको कष्ट दे रहा है। पितृदोष का अर्थ वंशानुगत, मानसिक और शारीरिक रोग और शोक भी होते हैं।

घर और बाहर जो वायु है वह सभी पितरों को धूप, दीप और तर्पण देने से शुद्ध और सकारात्मक प्रभाव देने वाली होती है। इस धूप, श्राद्ध और तर्पण से पितृलोक के तृप्त होने से पितृदोष मिटता है। पितरों के तृप्त होने से पितर आपके जीवन के दुखों को मिटाते हैं। पितृयज्ञ और पितृदोष एक वैज्ञानिक धारणा है।

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