UNESCO Creative Cities Network : गुरुजी गले लग के रोए, आंसूओं से दिल के जख्म धोए

पं. ध्रुवनाथ मिश्र का दृष्टिबाधिता से पीड़ित होने के चलते उन दिनों न तो सितार पर रियाज हो पा रहा था न ही लाचारी के चलते अपने गुरुदेव पं. अमरनाथ मिश्र (अब दिवंगत) के चरणों में उपस्थिति ही दर्ज हो पा रही थी।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Sat, 03 Apr 2021 08:31 AM (IST) Updated:Sat, 03 Apr 2021 08:31 AM (IST)
UNESCO Creative Cities Network : गुरुजी गले लग के रोए, आंसूओं से दिल के जख्म धोए
लाचारी के चलते अपने गुरुदेव पं. अमरनाथ मिश्र (अब दिवंगत) के चरणों में उपस्थिति ही दर्ज हो पा रही थी।

वाराणसी, जेएनएन। वाराणसी यूनेस्‍को की ओर से क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क में संगीत के क्षेत्र में शामिल है। यहां की संगीत परंपराओं में विरासत एक अनोखा पहलू है। इसी कड़ी में काशी के एक कलाकार की जुबानी सुनिए संगीत की कहानी-  

पं. ध्रुवनाथ मिश्र का दृष्टिबाधिता से पीड़ित होने के चलते उन दिनों न तो सितार पर रियाज हो पा रहा था न ही लाचारी के चलते अपने गुरुदेव पं. अमरनाथ मिश्र (अब दिवंगत) के चरणों में उपस्थिति ही दर्ज हो पा रही थी। उधर गुरुजी परेशान कि आकिर बच्चे को हुआ क्या। न तो मंचों पर नजर आ रहा है, न ही मेल मुलाकात। किसी से पूछा तो पता चला कि आंखों की रोशनी मद्धिम पड़ती जा रही है। सूचना पाते ही जैसे थे वैसे ही भागते हुए घर आ पहुंचे। आंखों की हालत देखकर विह्वल हो गए। अब गले लगाकर फफक पड़े। सच कहता हूं सारी पीड़ा मानव उनके आंसूओं से धोती चली गई। दर्द की चट्टान पिघलती चली गई। गुरुजी अनुशासन को लेकर जितने ही कठोर थे बावनाओं के धरातल पर उतने ही सहज और सरल।

नब्बे के दशक का दौर अखिल भारतीय स्तर पर विश्वविद्यालयीय यूथ फेस्टिवल रूढ़की में आयोजित था। वहीं गेस्ट हाउस में शाम को रियाज पर था कि महोत्सव के संयोजक सैमशन डेविड के साथ कमरे में गुरुजी पधारे और खांटी काशिका में चेताया -कल संझा के अव्वल नहीं अइला त बनारस चल के एकठे रेक्शा खरीदवा देब उहे चलईहा। पहिले समझ ला संगीत सीखे बदे केतनी साधना चाही।' उनकी यह बात मानौ मेरे लिए एक संकल्प बन गई। सितार के तारों को छेड़ते-छेड़ते कब रात गई कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। इस कठिन रियाज ने रंग लाया और उत्सव के बाद जब उद्घोषक ने विजेता के रूप में मुझे मंच पर बुलाया तो लगा जैसे गुरुजी का सीना चौड़ा हो गया। अंकवारी में बांधकर उन्होंने जोश बरसाया। उसका गीलापन आज भी जब उन्हें याद करता हूं। दिल में महसूस होता है।

एक और वाक्या याद आता है- मामा जी यानी पं. राजन मिश्र के साथ उन दिनों उस्ताद गुलाम अली खां साहब काशी में थे। सनबीम समूह के चेयरमैन दीपक मधोक के यहां संगीत संगोष्ठी सजी थी। मैं सितार वादन कर रहा था। कार्यक्रम की समाप्ति पर उस्ताद गुलाम अली ने मेरी पीठ थपथपाई। पूछा कि यह युवा सितार वादक किसका सागिर्द है। पं. राजन ने गुरुदेव का नाम बताया तो उन्होंने कहा मैं पं. अमरनाथ से मिलना चाहता हूं। जिन्होंने ऐसे-ऐसे शिष्य तैयार किए हैं। उस्ताद गुलाम अली खां के गुरुजी की मुलाकात हुई। दोनों ने एक स्वर में मेरी साधना को सराहा। इससे बड़ा सम्मान मेरे लिए भला और क्या हो सकता था।

गुरुजी का मानना था एकही साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। इसलिए वाणिज्य का स्नातक होने के बाद भी गुरुदेव ने कामर्स के कोर्स से मेरी छुट्टी करा दी। शिक्षा की धारा भी एक मेव संगीत की ओर मोड़ दी। एमम्यूज करने के बाद उन्होंंने मुझे कई मंच अपने साथ उपलब्ध कराए। वे जीवन पर्यंत मेरे गुरु होने के साथ माता-पिता का प्यार भी मुझ पर लुटाते रहे। बाजारीकरण के दौर की इस शिक्षा व्यवस्था में पता नहीं आज के विद्यार्थी गुरु शिष्य के उन संबंधों के साथ जुड़ी कोमल संवेदनाओं को समझ भी पाएंगे या नहीं।

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