वाराणसी के ज्ञानवापी मामले की कोर्ट में किताबों की गवाही से खुला पुरातात्विक सर्वेक्षण का रास्ता

वाराणसी के ज्ञानवापी मामले में कोर्ट में किताबों की गवाही ने पुरातात्विक सर्वेक्षण का मार्ग प्रशस्त किया है। संदर्भ के तौर पर इतिहासकार डा. अनंत सदाशिव अल्तेकर की वर्ष 1937 में प्रकाशित पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बनारस व अन्य को कोर्ट में पेश किया गया है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Sat, 10 Apr 2021 08:50 AM (IST) Updated:Sat, 10 Apr 2021 01:44 PM (IST)
वाराणसी के ज्ञानवापी मामले की कोर्ट में किताबों की गवाही से खुला पुरातात्विक सर्वेक्षण का रास्ता
ज्ञानवापी मामले में कोर्ट में किताबों की गवाही ने पुरातात्विक सर्वेक्षण का मार्ग प्रशस्त किया

वाराणसी, जेएनएन। ज्ञानवापी मामले में कोर्ट में किताबों की गवाही ने पुरातात्विक सर्वेक्षण का मार्ग प्रशस्त किया है। संदर्भ के तौर पर इतिहासकार डा. अनंत सदाशिव अल्तेकर की वर्ष 1937 में प्रकाशित पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बनारस व अन्य को कोर्ट में पेश किया गया है। वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि इतिहासकार एएस अल्तेकर की पुस्तक में दर्ज तथ्य भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत महत्वपूर्ण है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 57 (13) के तहत सामान्य इतिहास की पुस्तकों मेें भी वर्णित ऐतिहासिक तथ्य को साक्ष्य के तौर पर मान्यता है। अयोध्या के मुकदमे में भी सर्वोच्च और उच्च न्यायालय ने ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्यों को मान्यता दी है।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे अल्तेकर की किताब में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को तहस-नहस करने का विवरण प्रमुखता से दर्ज है। इतिहासकार ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि मस्जिद के चबूतरे पर स्थित खंभों व नक्काशी को देखने से प्रतीत होता है कि ये चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के हैं। इसका ज्ञानवापी परिसर का पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने को लेकर चल रही बहस में भी उल्लेख किया गया है।

इतिहासकार अल्तेकर ने अपनी पुस्तक के अध्याय चार में वर्णन किया है किश्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर की वजह से बनारस को दो हजार साल पहले से ख्याति प्राप्त है। पौराणिक साक्ष्य बताते हैं कि श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर के उत्तर तरफ ज्ञानवापी कूप स्थित है और कोई कूप पुराने आदि विश्वेश्वर मंदिर के दक्षिण तरफ इस हाता में नहीं है, इसलिए विश्वनाथ मंदिर ज्ञानकूप के दक्षिण तरफ स्थित है। इस मंदिर को कई बार सन् 1194 से 1669 के बीच तोड़ा गया। इसका नारायण भट्ट लिखित पुस्तक 'त्रिस्थली सेतु में भी वर्णन किया गया है। इसमें यह वर्णित है कि यदि कोई मंदिर तोड़ दिया गया हो और वहां से लिंग हटा दिया गया हो या नष्ट कर दिया गया हो तब भी स्थान महात्म्य की दृष्टि से विशेष पूजनीय है। इसकी परिक्रमा करके पूजा और अभिषेक संपन्न किया जा सकता है। पुस्तक में औरंगजेब द्वारा विश्वनाथ मंदिर गिराने का भी जिक्र है। ताकि हिंदुओं को लिंग पूजा से रोका जा सके। इसलिए विश्वनाथ मंदिर का हिंदू मंडप जो 125 गुणे 18 फीट के क्षेत्र में था, उस पर पत्थर की पट्टियों के माध्यम से एक प्लेटफार्म बना दिया गया। इसका एक भाग इस समय भी हिंदुओं के कब्जे में है। इसमें 15वीं शताब्दी के मंदिर का अवशेष भूतल पर देखा जा सकता है, जिसके ऊपर वर्तमान में प्लेटफार्म है।

पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने के प्रार्थनापत्र पर सुनवाई के दौरान वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी ने 23 सितंबर, 1998 को अपर जिला जज (प्रथम) के निर्णय का हवाला देते हुए दलील दी कि वर्तमान वाद में विवादित स्थल की धार्मिक स्थिति 15 अगस्त, 1947 को मंदिर की थी अथवा मस्जिद की, इसके निर्धारण के लिए मौके के साक्ष्य की आवश्यकता है। चूंकि कथित विवादित स्थल विश्वनाथ मंदिर का एक अंश है, इसलिए एक अंश की धाॢमक स्थिति का निर्धारण नहीं किया जा सकता है, बल्कि ज्ञानवापी के पूरे परिसर का भौतिक साक्ष्य लिया जाना जरूरी है। डा. अल्तेकर की पुस्तक प्रस्तुत की, जिसमें ह्वेनसांग द्वारा विश्वनाथ मंदिर के लिंग की 100 फीट ऊंचाई और उस पर निरंतर गिरती गंगा की धारा के संबंध में भी उल्लेख है।

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