Swami Vivekanand Death Anniversary इस युवा संन्यासी की मीठी फटकार ने काशी में बदल दिया एक प्रकल्प का संस्कार
स्वामी विवेकानंद की मीठी और दुलार भरी फटकार का ही परिणाम रहा कि पूअरमेंस रिलीफ सोसायटी में से रिलीफ शब्द हटाकर संस्था का नाम रामकृष्ण मिशन होम ऑफ सर्विस किया गया था।
वाराणसी, [कुमार अजय]। नहीं बंधुओं ! कार्य सराहनीय है परंतु अभिप्राय से असहमत हूं मैैं। आखिर हम होते कौन हैं पीडि़तों को प्राण देने वाले। यह कार्य तो ईश्वराधीन है। हमारी हद पीडि़तों की सेवा तक की सीमित है। इसी पर हम सब लक्ष्य संधान करें। यही किसी भी सेवा प्रकल्प की मूल भावना होनी चाहिए। युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद की इस विनम्र असहमति ने काशी के उन उत्साही नौजवानों द्वारा स्थापित उस सेवा प्रकल्प का संस्कार ही बदल दिया जिन्होंने विवेकानंद की प्रेरणा से दशाश्वमेध क्षेत्र में आर्तजनों की चिकित्सकीय सेवा के लिए पूअरमेंस रिलीफ सोसायटी स्थापित की थी।
1902 में काशी प्रवास पर आए थे स्वामी विवेकानंद
बात है वर्ष 1902 के फरवरी की। स्वामी विवेकानंद बोधगया से काशी प्रवास पर आए। वे चारूचंद्र दास, केदारनाथ मौलिक, हरिदास ओदेदार, यामिनी रंजन मजूमदार, हरिदास चट्टोपाध्याय, विभूति प्रकाश ब्रह्मïचारी, ज्ञानेंद्रनाथ सिन्हा व पं. शिवनाथ भट्टïचार्य जैसे उत्साही अनुगामियों द्वारा संचालित आरोग्यशाला देखने दशाश्वमेध पहुंचे। मीठी और दुलार भरी इस फटकार का ही परिणाम रहा कि रिलीफ शब्द हटाकर इस संस्था का नाम रामकृष्ण मिशन होम ऑफ सर्विस किया गया जो आज भी मौन प्रकल्प के रूप में पीडि़त रोगियों की अहर्निश सेवा में रत हैै।
संन्यास लेकर पूरा जीवन पीडि़त मानवता की सेवा को किया समर्पित
प्रकल्प की निगरानी कर रहे स्वामी वशिष्ठानंद बताते हैं, यह स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व व ओजस्वी वाणी का ही प्रभाव था कि प्रकल्प विस्तार पाकर लक्सा स्थित रामकृष्ण अद्वैत आश्रम में विशाल चिकित्सा संस्थान के रूप में स्थापित हुआ। यह शिव स्वरूप स्वामी विवेकानंद की वाणी का ओज था जिसमें अभियान के कल्पनाकार चारू चंद्र दास (स्वामी शुभानंद), केदारनाथ मौलिक (स्वामी अचलानंद), हरिदास ओदेदार (स्वामी सदाशिवानंद) ने संन्यास लेकर पूरा जीवन पीडि़त मानवता की सेवा को समर्पित कर दिया।
रुग्ण काया को काशी में मिली नई ऊर्जा
स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। कोई नहीं जानता था कि अनंत के पथिक स्वामी विवेकानंद इहलोक की संक्षिप्त यात्रा को इतनी जल्दी विराम देंगे और उनकी यह अंतिम काशी यात्रा है। उनके करीबियों ने अलग-अलग वृत्तांत में लिखा है कि थकावट की इस बेला में काशी का यह अंतिम प्रवास स्वामी जी के लिए कितना सुखकारी रहा। जिक्र आया है कि एक माह के काशी लाभ में बहुमूत्र, नेत्र विकार और अन्य रोगों से ग्रस्त स्वामी जी की काया को काफी राहत मिली। गंगा स्नान, नौका विहार व काशी विश्वनाथ, अन्नपूर्णेश्वरी के दर्शन-पूजन ने उनको मानसिक ऊर्जा भी दी। स्वामी जी काशी से आठ मार्च 1902 को बेलुर मठ लौटे और चार जुलाई को उनकी सांसें स्थिर हो गईं।