साठ साल पुराना खत खुला तो पता चला आखिर कैसे उठ गई गांवों की बैठकी
समाजिक कार्यकर्ता बल्लभाचार्य पांडेय ने सोशल मीडिया के जरिए साझा किया है। जिसमें उन्होंने अपनी दादी का 60 वर्ष पुराना खत साझा करते हुए बदलते वक्त का दर्द बयां किया।
वाराणसी [हरि नारायण तिवारी] : आज से कई दशकों पूर्व की जीवनशैली के बारे में बुजुर्गों के पास बैठकर जाने तो पता चलेगा कि हम अब कितना बदल गए हैं। बदलाव तो प्रकृति का नियम है लेकिन इसी बदलाव से अपनों के बीच की सामाजिक दूरी बढ़ती जा रही है। एक समय ऐसा था कि गांव में पंचायत की बैठकी हुआ करती थी। इसी बहाने लोग बैठकर आपस में कितनी बातें कर लिया करते थे। बैठक में ही लोगों की कितनी समस्याएं हल हो जाती थी। लेकिन आज हम उस दौर में आ गए हैं कि लोगों का आपसी मिलना जुलना खत्म सा हो गया है। तकनीक के युग में एक क्लिक पर सारी जानकारियां प्राप्त आैर फीड हो जा रही हैं।
कुछ ऐसी ही कहानी समाजिक कार्यकर्ता बल्लभाचार्य पांडेय ने सोशल मीडिया के जरिए साझा किया है। जिसमें उन्होंने अपनी दादी का 60 वर्ष पुराना खत साझा करते हुए बदलते वक्त का दर्द बयां किया। खत के जरिए बल्लभाचार्य पांडेय ने बताया कि 60 वर्ष पुराने एक कागज पर उनकी नजर पड़ी। उस समय मेरी दादी राजवारी न्यायपंचायत की सरपंच हुआ करती थीं। पत्र के माध्यम से खरीफ की खेती का अभियान कैसे सफल हो इस विषय पर एक बैठक आहूत की गई। बैठक में न्याय पंचायत स्तर के नौ, दस गांवों के प्रधान और सरपंच आदि को बुलावा भेजा गया था।
साठ वर्षों में कितना बदल गए हम : खत को पढ़कर लगा कि इन साठ वर्षों में हम कहां से कहां पहुंच गए हैं। आने वाले समय में हम कहां पहुंचेंगे यह भी अंदाजा नही लगाया जा सकता। आज एक क्लिक पर पूरी दुनिया अपने मुट्ठी में हो गई है तो ऐसी बैठकों के बारे में सोचा भी नही जा सकता। जहां चिंतन होता था खेती किसानी और खाद पानी की मगर अब खेती के तौर तरीके बदले तो पंचायतों के लिए खेती किसानी जिम्मा भी नहीं रह गया।
बदल गईं पंचायतें : लोगों के पास समय के अभाव और गूगल की दुनिया ने बुजुर्गों के बीच बैठकर ज्ञान लेने का रास्ता बंद कर दिया है। आने वाली पीढ़ी इस ज्ञान की कमी को महसूस करेगी लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होगी। साठ साल पुराना खत इस बात की तस्दीक करता है कि पहले चिंतन सामूहिक था अब चिंता सरकारों पर छोड़ कर जिम्मेदारियों से मुह मोड़ने का हो चुका है। अब पंचायतों का स्वरूप बदल गया है बैठकी तो लगती है मगर मुददे अब सियासी अधिक हो गए हैं, गांव गिरांव की चिंता न जाने कहां गुम हो गई।