सिद्धेश्वरी देवी : सफर साधना से संकल्प सिद्धि तक, बेजोड़ था ठुमरी अंग की गायकी का विस्तार व बोल-बनाव

शास्त्रीय संगीत सिद्धेश्वरी देवी सिर्फ नाम से ही नहीं अपनी अथक साधना से भी सिद्धि के शिखर विजित कर चुकी थीं।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Sat, 08 Aug 2020 10:10 AM (IST) Updated:Sat, 08 Aug 2020 05:35 PM (IST)
सिद्धेश्वरी देवी : सफर साधना से संकल्प सिद्धि तक, बेजोड़ था ठुमरी अंग की गायकी का विस्तार व बोल-बनाव
सिद्धेश्वरी देवी : सफर साधना से संकल्प सिद्धि तक, बेजोड़ था ठुमरी अंग की गायकी का विस्तार व बोल-बनाव

वाराणसी [कुमार अजय]। शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों की मंकीय मर्यादा तो होती ही है, उनका श्रमण भी नियम कायदों की परिधि में बंधा होता है। अपने समय की ख्यात कथाकार रहीं गौरापंत शिवानी ने इसी अनुशासन को अपनी कलम से गहराई देते हुए अपने इस संस्मरण में ठुमरी साम्राज्ञी सिद्धेश्वरी देवी व उनकी आनुशासनिक ठसक को याद किया है। बात है दशकों पुरानी तत्कालीन ओरछा नरेश वीर flaह जूदेव के एक निपट पारिवारिक मंगल कारज के उपलक्ष्य में आयोजित संगीत सभा में मंच संभाल रखा था सिद्धेश्वरी ने। गायिका ने अपनी टीपों और टनकारों से खूबसूरत रेशमी माहौल बुन रखा था। सभी राजदरबार के कुछ मनसबदारों की कानाफूंसी खलल की शक्ल में कानों को खटकी और तुरंत उन्होंने गायन रोक दिया। जब तक लोग कुछ समझते सिद्धेश्वरी गरज उठी।

अन्नदाता पहले सलीके और शऊर से सुनने सुनाने वाले सुधी श्रोता तैयार करिए। उसके बाद ही गाने वालों को बुलाइये। बात तल्ख जरूर थी मगर थी खरी-खरी। कहना न होगा कि गुणग्राही ओरछा राज में उन्हें बहुत मनुहारों के साथ मनाया और उन्हें फरि से गाने के लिए तैयार कराया। दूसरी ओर उनकी एक फटकार ने बेअदब दरबारियों को शास्त्रीय प्रस्तुतियों को सुनने का कायदा सीखा दिया।

बनारस घराने के वरिष्ठ संगीतकार पंडित कामेश्वर नाथ मिश्र कहते हैं ऐसा बेबाक तेवर बस उसी कलाकार का हो सकता है। साथ ही अगर यह अक्खड़ मजिाजी बनारसी वानी के तासीर से वास्ता रखती हो तो फरि कहना ही क्या। सिद्धेश्वरी देवी सिर्फ नाम से ही नहीं अपनी अथक साधना से भी सिद्धि के शिखर विजित कर चुकी थीं। दस दौर की चर्चा करते हुए कहते हैं कामेश्वर जी, वैसे तो बनारस घराने में कोई ऐसा गायक नहीं हुआ, जो शास्त्रीय गायकी के साथ ठुमरी में भी निपुण न रहा हो। सच कहें तो, यही काशी की संगीत परंपरा की अपनी विशिष्टता है। कामेश्वर जी के अनुुुुुसार उस कालखंड में ठुमरी को बहुत ख्याति मिली। रामाजी गुजराती, काशी बाई और रसूलन बाई जैसे बड़े नाम थे, इस ठुमरी अंग में जो वस्तिार और बोल बनाव सिद्धेश्वरी देवी के गायन में था उसका कोई मुकाबला ही न था।

कहते हैं कामेश्वर जी हिंदोस्तानी संगीत के विभिन्न घरानों में महिला कलाकारों की संख्या मिलती है। किंतु काशी की संगीत परंपरा में महिला कलाकारों की अपनी सामानांतर व नियमित परंपरा रही है। इस सामानांतर सत्ता के स्थापन में सिद्धेश्वरी देवी की महती भूमिका नकारी नहीं जा सकती। उनके अंशदान को ही मान देते हुए उन्हें पद्मश्री के अतिरक्ति रवींद्र भारती की ओर से डी लिट की उपाधि से अलंकृत किया गया। संगीत नाटक अकादमी ने भी उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें मान दयिा।

बाजरा और मोतिया

अपने संस्मरणों मेें शिवानी ने सिद्धेश्वरी देवी के व्यक्तित्व के कई पक्षों को शिद्दत से याद किया है। उनकी पसंद और नापसंद उनके शौक, उनका मिजाज कोई भी लेखिका की कलम से नहीं बचा है। सुपारी और जर्दे की शौकीन सिद्धेश्वरी देवी का सुपारी काटने का भी अपना अंदाज था। बड़़ेे राजघरानें की कन्याएं व कुलवधुुुुएं उनसे अदब-कायदेे सीखने उनके घर आती थीं। खुद शिवानी ने उनके पास बैैैैठकर बाजरा व मोतिया किस्मों के बारीक दानें काटने की कला उनसे सीखी थी।

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