भीष्‍म पितामह को जल दिए बगैर श्राद्ध का विधान नहीं होता पूरा, जानिए क्‍यों है ऐसी मान्‍यता Varanasi news

श्रद्धा से जुड़ती है एक कहानी पितृपक्ष की जो पाठकों को महाभारत काल तक ले जाती है

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Wed, 18 Sep 2019 02:11 PM (IST) Updated:Wed, 18 Sep 2019 05:32 PM (IST)
भीष्‍म पितामह को जल दिए बगैर श्राद्ध का विधान नहीं होता पूरा, जानिए क्‍यों है ऐसी मान्‍यता Varanasi news
भीष्‍म पितामह को जल दिए बगैर श्राद्ध का विधान नहीं होता पूरा, जानिए क्‍यों है ऐसी मान्‍यता Varanasi news

वाराणसी [कुमार अजय]। अपनी संस्कृति व परंपराओं का अभिमान। सनातन कुल के परंपरा पुरुषों का मान व सभी को अपने में समा लेने का वरदान। यही वे तीन प्राण तत्व हैं जो भारतीय धर्म-दर्शन को सनातन व अविनाशी बनाते हैं। समय काल- परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेने वाले इस जीवन दर्शन को उदात्तता के शिखर तक ले जाते हैं। इसी औदार्य व इसी श्रद्धा से जुड़ती है एक कहानी पितृपक्ष की, जो पाठकों को महाभारत काल तक ले जाती है। कितने गहरे तक जुड़ी है अपने महानायकों के प्रति भारतीय सनातन समाज की श्रद्धा व संवेदनाएं इसकी थाह बताती हैं।

महाभारत के कथानक तथा पौराणिक आख्यानों के अनुसार कुरुकुल के पितृ पुरुष और उस दौर के महानायकों में से एक पितामह भीष्म (देवव्रत) अपनों के बाणों से बिंध कर रण क्षेत्र में शर-शैय्या धारी हुए। स्वयं की इच्छा के अनुसार पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने के बाद अर्जुन के तीर से फूटे सोते का जल ग्रहण कर शरशैय्या पर ही मृत्यु का वरण किया। देवव्रत भीष्म चूंकि नि:संतान मरे, अतएव श्राद्ध तिथियों में उनके नाम का तर्पण कौन करेगा यह प्रश्न तत्कालीन समाज व्यवस्था के सामने था। सभी ने उनकी इस व्यथा से अपने को जोड़ा। कर्मकांड के महारथियों ने अपने इस महानायक की खातिर सारी लीकों को तोड़ा और शास्त्रीय व्यवस्था दी कि न सिर्फ पितामह के वंशज बल्कि समस्त भारतीय समाज और उनकी आने वाली पीढिय़ों, जाति-समुदाय, पंथ-गोत्र के दायरों से अलग युगों तक पितामह को स्मरण करेंगी।

एक परंपरा का अनुगमन करते हुए प्रत्येक श्राद्ध वार्षिकी में अपने कुल-गोत्र के पूर्वजों के साथ ही वैयाघ्र गोत्र के महारथी भीष्म के नाम का तर्पण कर यश-कीर्ति के पुण्यफल का वरण करेंगी। युग बीत गए। परिवर्तन की आंधियों के चलते न जाने कितने संस्कारों के घट रीत गए। फिर भी सनातन समाज आज भी हर श्राद्ध पक्ष में अपने पुरखों का जब भी तर्पण करता है तब 'वैयाघ्र पद गोत्राय सांग्कृत्य प्रवराय च-अपुत्राय ददाम्येतद् जलं भीष्माय वर्मणे' के मंत्र से जौ-अक्षत के साथ इस युग पुरुष को उनके अंश स्वरूप उनकी तर्पण की अंजलि हमेशा अर्पण करता है। उल्लेखनीय यह भी कि तर्पण की भीष्माजंलि के बगैर श्राद्ध संस्कारों की पूर्णता नहीं मानी जाती। यह सिर्फ एक रस्म नहीं, है हमारी थाती।

यह संवेदना ही है सनातन की प्राण शक्ति

कहते हैं दर्शन शास्त्र के विद्वान प्रो. देवव्रत चौबे 'मन की संवेदनाओं के साथ धार्मिक तत्वों का यह योग ही प्राण शक्ति है सनातन धर्म-दर्शन की। भीष्म तर्पण के विधान के साथ जुड़े भाव का ही दृष्टांत लें तो वे पद की दृष्टि से स्मरण शृंखला में पितृ पद से भी ऊपर देव पद पर प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए जहां कुल के दिवंगतों को अपशव्य होकर दक्षिणाभिमुख तिलोदक देते हैं, वहीं पुत्र लाभ से वंचित पितामह को और ऊंचा पीढ़ा देते हुए शव्य (यज्ञोपवीत बाएं कंधे पर) मुद्रा में जल- अक्षत देकर उन्हें देव कोटि की पूर्वाभिमुख श्रद्धा-अंजलि समर्पित करते हैं। 

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