शहर की ह्रदय स्थली में शिव-शक्ति का वास, काशिराज परिवार ने बनवाया मां काली व पंचदेव का भव्य मंदिर
मंदिरों की नगरी काशी की ह्रïदय स्थली गोदौलिया से चौक की ओर कुछ कदम बढ़ते ही दायी ओर पत्थरों से कलात्मकता के साथ बनाया गया आकर्षक द्वार जिज्ञासा के पट खोलता है।
वाराणसी [प्रमोद यादव]। मंदिरों की नगरी काशी की ह्रïदय स्थली गोदौलिया से चौक की ओर कुछ कदम बढ़ते ही दायी ओर पत्थरों से कलात्मकता के साथ बनाया गया आकर्षक द्वार जिज्ञासा के पट खोलता है। इसमें प्रवेश करने पर सामने खड़ा दिव्य-भव्य मंदिर की झलक मात्र से आंखों खुली की खुली रह जाती हैैं। रथाकार प्लेटफार्म पर तमाम उपशिखरों से युक्त शिखर। इससे सटा मंडप और स्तंभ व दीवारों पर घंटियों-बुर्जनुमा आकृतियों से की गई साज-सज्जा भर नयन देख लेने को विवश करती है। दरअसल, भगवती के इस दरबार का काशिराज महाराज प्रभु नारायण सिंह की माता जी ने संवत् 1943 में कराया था। इसमें पंचदेव की स्थापना के साथ ही शिवपरिवार समेत नंदी को भी विराजमान कराया गया था। निर्माण से संबंधित शिलापट्टï भी परिसर में विद्यमान है। कहा जाता है इसके एक-एक पिलर बनाने में छह माह का समय लगा। इसके पीछे कथा है कि वर्तमान पुजारी परिवार की पांच पीढ़ी पहले दामोदर झा भगवती के साधक थे। वर्ष 1840 में तीर्थाटन के लिए निकलते तो रामनगर पहुंचे जहां सूखा पड़ा हुआ था। तत्कालीन महाराज ईश्वरी नारायण सिंह से लोगों ने भगवती साधक के नगर में आने की सूचना दी। व्यथा-कथा सुनने पर पं. दामोदर झा ने बारिश होने का भरोसा तो दिया ही समय भी बता दिया। तद्नुसार ही वर्षा हुई और अभिभूत महाराज ने उत्तराधिकारी से संबंधित अपनी चिंता से भगवती साधक को अवगत कराया। पं. दामोदर झा ने बेबाकी से कहा कि-घर में पता करिए संतान है। पूछताछ करने पर पता चला छोटे भाई की पत्नी गर्भ से हैैं। चकित महाराज ने भगवती साधक को रामनगर में ही ठहर जाने का आग्रह किया। खुद को देवी साधक बताने और काशी क्षेत्र में ही ठहरने की इच्छा जताने पर गोदौलिया पर पहले से बन रहे मंदिर में ठहराया गया। परिवार में बालक का जन्म होने के बाद मंदिर में भगवती की स्थापना की गई। फिलहाल दामोदर झा की पांचवीं पीढ़ी के प. अमरनाथ झा पूजन अर्चन की जिम्मेदारी निभाते हैैं। दर्शन पूजन के लिए राज परिवार के लोग अभी भी आते हैैं।
ऋषि कुटिया में महादेव
काली मंदिर से सटे छोटे से कक्ष में गौतमेश्वर महादेव विराजमान हैैं। जनश्रुतियों के अनुसार आदि काल में यह गौतम ऋषि का आश्रम था। ऋषि ने महादेव की स्थापना कर पूजन किया। हालांकि शिवलिंग को स्वयंभू भी कहा जाता है। कथा के अनुसार यह एक नवाब का स्थान हुआ करता था। भगवान ने स्वप्न में काशिराज को अपनी पीड़ा बताई। इसे लेकर मामला न्यायालय में भी चला। बाद में नवाब परिवार खत्म हो गया और गौतमेश्वर महादेव का स्वरूप निखर कर सामने आया।