वाराणसी में संस्कृति संसद : कर्म ही तय करता है मनुष्य की जाति, प्रथम सत्र में संतों-विद्वानों ने की चर्चा

वर्ण-जाति व्यवस्था के संदर्भ में उठे प्रश्न पर सभी विद्वानों ने एकमत से कहा कि जन्म से नहीं अपितु कर्म से ही मनुष्य की जाति तय होती है। हमारे जिसने अपने भीतर ब्राह्मणत्व का विकास किया वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Fri, 12 Nov 2021 07:12 PM (IST) Updated:Fri, 12 Nov 2021 07:12 PM (IST)
वाराणसी में संस्कृति संसद : कर्म ही तय करता है मनुष्य की जाति, प्रथम सत्र में संतों-विद्वानों ने की चर्चा
संस्कृति संसद के प्रथम सत्र में सनातन हिंदू धर्म के अनुत्तरित प्रश्‍न पर चर्चा करते धर्माचार्य

जागरण संवाददाता, वाराणसी। क्या हमारे धर्मशास्त्रों में स्त्री-पुरुष में विभेद किया गया है? क्या वर्ण व्यवस्था अवैज्ञानिक है? समुद्री यात्रा निषिद्ध क्यों है? क्या जिसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया, वही ब्राह्मण है...? धार्मिक कर्मकांड कोई ब्राह्मणेतर व्यक्ति करे तो क्या हमारी सनातनी परंपरा में इसकी स्वीकार्यता है...?

काशी में संस्कृति संसद का प्रथम सत्र। हर चेहरे पर जिज्ञासा थी और आंखों में उत्कंठा के भाव। मन में सनातन धर्म के ऐसे ही अनुत्तरित प्रश्नों को जानने की अभिलाषा थी। मंचासीन संतों-विद्वानों ने विभिन्न शास्त्रों-स्मृतियोंके प्रसंगानुकूल संदर्भों का उदाहरण देते हुए इन सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। संस्कृति संसद के प्रथम सत्र में शास्त्रों में वर्णित विधानों पर तो चर्चा हुई ही, व्यावहारिक जीवन में इनकी उपादेयता और सनातन धर्म-संस्कृति के विरोध में किए जा रहे षड्यंत्रों का सच भी उजागर किया गया। वर्ण-जाति व्यवस्था के संदर्भ में उठे प्रश्न पर सभी विद्वानों ने एकमत से कहा कि जन्म से नहीं अपितु कर्म से ही मनुष्य की जाति तय होती है। हमारे जिसने अपने भीतर ब्राह्मणत्व का विकास किया, वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।

आरंभ में जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा कि जिसे धारण करने से मानवमात्र का अभुदय हो, उत्थान हो, वही सनातन धर्म है। जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी राजराजेश्वराचार्य ने विभिन्न उद्धरणों से सनातन संस्कृति की वैज्ञानिकता प्रमाणित की। आह्वान किया कि फैलाए जा रहे भ्रमजाल में उलझने के बजाय उसका प्रतिउत्तर दें। आपके तर्क का आधार बनेंगे ऋषि-मनीषियों के शोध-तप के आधार पर लिखे हमारे धर्मशास्त्र।

स्त्री स्वातंत्र्य पर प्रतिबंधों के संबंध में किए जा रहे दुष्प्रचार को नकारते हुए धर्मशास्त्री आचार्य वाचस्पति त्रिपाठी ने स्पष्ट किया कि हमारी सनातन संस्कृति 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता के भाव की पोषक रही है। धर्मशास्त्रों में वर्णित है कि बिना स्त्री के गृहस्थ जीवन का कोई अनुष्ठान पूर्ण हो ही नहीं सकता। भार्या संग न हो तो तीर्थाटन तक का पुण्य नहीं मिलता। भारतीय समाज में स्त्री हमेशा से सत्कार-सम्मान पाती रही है। कन्या पूजन का विधान हमारी सनातन संस्कृति में ही मिलता है।

धर्मशास्त्री पं. रामकिशोर त्रिपाठी ने विदेश गमन के प्रश्न पर बताया कि धर्मशास्त्रों में परिणाम का विचार करने के उपरांत ही विधान किए गए। प्राचीनकाल में जल की पवित्रता का ध्यान रखते हुए नौका से लंबी यात्रा का निषेध किया गया, क्योंकि शौचादि क्रियाएं जल में निषिद्ध हैैं।

श्रीकाशी विद्वत परिषद के महामंत्री आचार्य रामनारायण द्विवेदी ने सोदाहरण बताया कि यदि कोई ब्राह्मïणेतर व्यक्ति गुण-कर्म से ब्राह्मïणत्व विकसित कर ले तो वही ब्राह्मïण है, श्रेष्ठ है और यदि कोई ब्राह्मïण संध्या वंदन न करे तो वह ब्राह्मण कहने का अधिकारी नहीं।

निष्कर्ष

- सनातन संस्कृति के विधान विज्ञान सम्मत और व्यावहारिक हैं।

- धर्मशास्त्रों में किसी वर्ण के प्रति भेदपूर्ण विवरण नहीं हैं।

- वर्ण व्यवस्था सृष्टि के संचालन और संरक्षण के लिए बनाई गई। किसी को श्रेष्ठ या हीन दर्शाने के लिए नहीं।

- जो विद्वान है, वही ब्राह्मण है।

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