पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा वाराणसी का संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, कुलपति ने मंत्री नीलकंठ से की मुलाकात

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ने प्राच्य विद्या का प्रमुख केंद्र पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है। विश्वविद्यालय इसकी विस्तृत रूपरेखा बनाने में भी जुटा हुआ है। प्राच्य विद्या के क्षेत्र में यह विश्वविद्यालय देश का ही नहीं पूरी दुनिया की पहली संस्था है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Thu, 22 Jul 2021 05:09 PM (IST) Updated:Thu, 22 Jul 2021 05:09 PM (IST)
पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा वाराणसी का संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, कुलपति ने मंत्री नीलकंठ से की मुलाकात
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ने प्राच्य विद्या का प्रमुख केंद्र पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है।

वाराणसी, जागरण संवाददाता। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ने प्राच्य विद्या का प्रमुख केंद्र पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है। विश्वविद्यालय इसकी विस्तृत रूपरेखा बनाने में भी जुटा हुआ है। यही नहीं इस संबंध में कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी गुरुवार को पर्यटन एवं धर्मार्थ-कार्य- संस्कृति (स्वतंत्र प्रभार) राज्यमंत्री डा. नीलकंठ तिवारी से उनके आवास पर मुलाकात भी की। इस दौरान कुलपति विश्वविद्यालय की गौरवगाथा बताते हुए वृत्तचित्र बनावाने का सुझाव दिया। वहीं राज्यमंत्री में समुचित सहयोग का आश्वासन देते हुए इस संबंध में प्रस्ताव देने का सुझाव दिया ताकि इस दिशा में मंत्रालय विचार कर सके।

कुलपति ने बताया प्राच्य विद्या के क्षेत्र में यह विश्वविद्यालय देश का ही नहीं पूरी दुनिया की पहली संस्था है। इसकी स्थापना वर्ष 1791 में हुई थी। वहीं 22 मार्च 1958 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद के विशेष प्रयास से इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। उस समय इसका नाम 'वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय' था। वर्ष 1974 में इसका नाम बदलकर 'संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय' कर दिया गया। इस विश्वविद्यालय के विकास में काशी नरेश महीप नारायण सिंह, जे म्योर, डा. जेआर वलेंटाइन, आरटीएच ग्रिफिथ, महामहोपाध्याय डा. गंगाधर झा, महामहोपाध्याय पं गोपीनाथ कविराज, पूर्व मुख्यमंत्री संपूर्णानंद व पूर्व मुख्यमंत्री पं. कमलापति त्रिपाठी सहित अन्य लोगों की अहम भूमिका रही है। यहां भारतीय  में विभिन्न युगों की गौरव गरिमा उपलब्ध है। साहित्य, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, व्याकरण, तन्त्र, आगम, मीमांसा, न्याय, वेदान्त आदि भारतीय शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापक का यह मुख्य केंद्र है। वेद, धर्मशास्त्र, ज्योतिष,व्याकरण, साहित्य, पुराणेतिहास,प्राचीन राजशास्त्र अर्थशास्त्र, न्याय वैशेषिक, सांख्य योग तन्त्र आगम, पूर्व मीमांसा, तुलनात्मक धर्म दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, पाली एवं थेरवाद, प्राकृत एवं जैनागम, आधुनिक भाषा एवं भाषा विज्ञान, समाजिक विज्ञान, गृह विज्ञान, शिक्षाशास्त्र, विज्ञान एवं ग्रन्थालय विज्ञान तथा विदेशी भाषाओं का भी इस विश्वविद्यालय में पठन पाठन होता है।

पूरे देश में शाखाएं

संस्था का क्षेत्राधिकारी पूरे देश है। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, प बंगाल, सिक्किम, गुजरात, महाराष्ट्र, हिमांचल, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा अन्य राज्यों में करीब 1200 संबद्ध कालेज हैं।

ऐतिहासिक मुख्य भवन

गॉथिक शैली के ऐतिहासिक मुख्य भवन की अाधारशिला दो नवंबर 1847 को तत्कालीन महाराज बनारस और सैनिक अधिकारी मेजर मारखम किट्टो ने रखी थी।

सरस्वती भवन पुस्तकालय

सरस्वती भवन पुस्तकालय की स्थापना इंग्लैंड के प्रिन्स तथा प्रिंसेज ऑफ़ वेल्स के काशी आगमन पर 16 नवम्बर,1907 को हुआ था। पुस्तकालय मे एक लाख से अधिक पाण्डुलिपियों का अनुपम भंडार है तथा इसके द्वितीय मुद्रित प्रभाग में एक लाख से अधिक मुद्रित पुस्तकें हैं। वर्तमान मे इम्फोसिस फाऊंडेशन के आर्थिक सहयोग से पाण्डुलिपियों को संरक्षिण का कार्य जारी है।

पुरातत्व संग्रहालय : प्रथम कुलपति डा. आदित्यनाथ झा के कार्यकाल मे 1958 में पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना हुई।

वृत्तचित्र एवं पर्यटन स्थल :

बौद्ध कक्ष, आरटीएच ग्रिफिथ द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण का अंग्रेजी अनुवाद (ग्रिफिथ स्मारक) स्थली, नाट्यशाला, यज्ञशाला, श्रौत विहार, पं सुधाकर द्विवेदी वेधशाला, लाल भवन, पंच मन्दिर,वाग्देवी मन्दिर, अशोक स्तुप आदि धरोहर का जीर्णोद्धार एवं विकास कर पर्यटन स्थल के रूप मे स्थापित किया जायेगा।

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