नागरी प्रचारिणी सभा काशी के 'गोमुख' से ही फूटी प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' की अजस्र धारा

हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र के असामयिक तिरोधान (मात्र 35 वर्ष) के बाद काशी के साहित्यिक क्षेत्र में जो खालीपन आया वह कुछ समय तक एक बोझिल सन्नाटे की शक्ल में लेखन से प्रकाशन तक के प्रयासों पर हठीले पाथर के मानिंद पसरा रहा।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Sat, 12 Jun 2021 05:01 PM (IST) Updated:Sat, 12 Jun 2021 05:01 PM (IST)
नागरी प्रचारिणी सभा काशी के 'गोमुख' से ही फूटी प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' की अजस्र धारा
16 जुलाई 1893 को काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बीजारोपण किया।

वाराणसी, जेएनएन। हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र के असामयिक तिरोधान (मात्र 35 वर्ष) के बाद काशी के साहित्यिक क्षेत्र में जो खालीपन आया वह कुछ समय तक एक बोझिल सन्नाटे की शक्ल में लेखन से प्रकाशन तक के प्रयासों पर हठीले पाथर के मानिंद पसरा रहा। अपने यशस्वी पिता बाबू गोपाल चंद से मिली साहित्य सेवा की पैतृक विरासत को एक बिरवे की भांति पोस्ते हुए भारतेंदु ने भी काशी के साहित्यिक समाज में उच्च कोटि के विद्वानों की प्रतिभा का एक आभा मंडल संघटित कर रखा था। उनके पयान के साथ ही यह औरा भी बिखरकर रह गया।

व्यक्तित्व हो या कृतित्व दोनों ही स्तरों पर काशी के साहित्यिक क्षेत्र में तात्कालिक तौर पर कोई विकल्प सामने नहीं था। यह असहय उकताहट अब चिंता व पीड़ा बनकर घहराने लगी थी। सर्जना कि भीति जैसे भहराने लगी थी। ऐसे में हिंदी के किशोर व्यस्यक तीन तपः पूतों ने 16 जुलाई 1893 को काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बीजारोपण किया। इस पौध को अपने खून-पसीने से कुछ इस तरह सींचा कि तमाम प्रतिकूलता से जूझने के बाद भी यह जतन एक ऐसे छतनार वटवृक्ष के रूप में परिणत हुआ जिसकी छांव पाकर कितनी ही प्रतिभाएं धन्य हो गयी। उस दौर में हिंदी साहित्य के लिए कल्पवृक्ष साबित हुई संस्था के कुछ ही वर्षों के बीच तैयार प्रभा मंडल के प्रभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस समय की सबसे मानित व प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' की कल्पना से लगायत पत्रिका के आरंभिक तीन वर्षों के संपादन व प्रकाशन की व्यवस्था का श्रेय संस्था के नाम टंकीत हुआ। जी हां ! यह वही माननीय पत्रिका थी। जिसमें खुद की रचना का प्रकाशन किसी भी लेखक के लिए उन दिनों सर्वोच्च मान-अभिमान हुआ करता था।

खेलवाड़ नहीं यह 'बीड़ा' का बड़वार

भारतेंदु के मंतव्य को आगे बढ़ाने के अभीष्ट थे जब उनके अनुगामी तीन तरुण छात्रों श्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र व डॉ. शिवकुमार सिंह ने जब नागरी प्रचारिणी के स्थापन का संकल्प उठाया तो पहली बार में उसे खेलवाड़ या क्षणिक उद्वेक ही माना गया। यह बात और कि इन धुनि और जुनूनी हिंदी कार्यकर्ताओं ने अपने कठिन प्रयासों से लक्ष्यों का सटीक संधान कर बहुत कम समय में ही साबित कर दिया कि किन इस्पाती इरादों के साथ उन्होंने यह बड़वार बीड़ा उठाया है। बड़ी बात यह कि संस्था के गठन के साथ ही इन हिंदी सेवियों ने क्रमशः ग्यारह सूत्रों को साधने का संकल्प धारा।

इस बिंदुवार क्रम में हिंदी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, एक प्रामाणिक बड़े हिंदी शब्दकोश की रचना, लेखकों संपादकों के जीवन चरित के लेखन, हिंदी भाषा व साहित्य के इतिहास लेखन की तैयारी, हिंदी हस्तलिपि की परीक्षा, हिंदी उपन्यास के लेखन, हिंदी भारतवर्ष के इतिहास के पुनरावलोकन, यात्रा लेखन को प्रोत्साहन, विभिन्न शाखाओं का प्रणयन, विज्ञान विषयक ग्रन्थों के प्रणयन के अलावा हिंदी के प्राचीन श्रेष्ठ ग्रन्थों के प्रकाशन के धेय्य बिंदु शामिल थे। उल्लेखनीय यह भी कि संस्था और इसके कार्यकर्ताओं ने अपने लगन से इस तयशुदा राह कि ज्यादातर मंजिले तर कीं। यह भी साबित कर दिखाया कि हौसला बुलंद तो अपने दम बूते क्या कुछ किया जा सकता है।

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