स्वराज से जुड़ा हिंदी का प्रश्न, भारत की आजादी की गाथा में एक बड़ा अध्याय हिंदी सेवी संस्थाओं का भी

आजादी के आंदोलन की धार को धारा प्रदान करने के लिए देश स्तर पर एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई जिससे जन-जन तक स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रम और राष्ट्रीय नेताओं का संदेश पहुंच सके। लोक जागरण के लिए यह महती जिम्मेदारी निभाई हिंदी सेवी संस्थाओं ने।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Sun, 12 Sep 2021 10:43 AM (IST) Updated:Sun, 12 Sep 2021 10:48 AM (IST)
स्वराज से जुड़ा हिंदी का प्रश्न, भारत की आजादी की गाथा में एक बड़ा अध्याय हिंदी सेवी संस्थाओं का भी
‘नागरीप्रचारिणी सभा’ ने आंदोलन के क्रम में तब के संयुक्त प्रांत में एक पहल शुरू की

वाराणसी,  भारतीय बसंत कुमार। स्वतंत्रता आंदोलन की धार तेज करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई, जिससे जन-जन तक राष्ट्रीय एकता का संदेश पहुंच सके। लोक जागरण के लिए यह महती जिम्मेदारी निभाई हिंदी सेवी संस्थाओं ने।

भारत की आजादी की गाथा में एक बड़ा अध्याय उन हिंदी सेवी संस्थाओं का भी है जिन्होंने भाषा-साहित्य के माध्यम से लोक जागरण में बड़ी भूमिका निभाई। देश के कई हिस्सों में ऐसी संस्थाओं ने राष्ट्रभक्तों की अगुआई में कठिन तप किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इनके माध्यम से यह कोशिश थी कि अंग्रेजी भाषा एवं पाश्चात्य दर्शन-संस्कृति की जगह हिंदी के माध्यम से ऐसी शिक्षण पद्धति विकसित की जाए जिसमें राष्ट्रीयता की पाक हो। स्वावलंबन और राष्ट्रीय एकता का संदेश हो और भारत की प्राचीन सांस्कृतिक आभा को बनाए रखने का उपक्रम हो। काशी की ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ का योगदान इस क्षेत्र में व्यापक है। देश जब ब्रिटिश हुकूमत के शोषण के दौर से गुजर रहा था, तब वर्ष 1893 में स्थापित इस संस्था ने अपने देश के साहित्य को बचाए रखने का बड़ा काम किया। सूर, तुलसी, कबीर, रसखान, जायसी, रहीम की प्रामाणिक रचनावलियों का प्रकाशन यहां से संभव हो सका। आजादी के आंदोलन के समय हिंदी को अदालती कामकाज की भाषा बनाने के लिए इस संस्था ने अखिल भारतीय आंदोलन का नेतृत्व किया। यह चाहत भारतेंदु हरिश्चंद्र की भी थी। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अदालतों और सरकारी कामकाज में हिंदी के व्यवहार के लिए बहुत प्रयास किया। वे तो एक मासिक पत्र ‘नीति प्रकाश’ ही निकालना चाहते थे ताकि अंग्रेजों के कानून की समझ भारतीय लोगों को हो और वे उसके दुष्चक्र से दूर रहें। इसमें उर्दू में हुए कामकाज का तर्जुमा भी छापने की योजना थी।

विदेश तक समादृत

‘नागरीप्रचारिणी सभा’ ने आंदोलन के क्रम में तब के संयुक्त प्रांत में एक पहल शुरू की कि कचहरियों में वैकल्पिक रूप से हिंदी में लिखित अर्जी भी ली जाए। इसके लिए पांच लाख लोगों के हस्ताक्षर कराकर तत्कालीन गवर्नर एंथी मैकडानेल के पास भेजा गया। कालांतर में सभा ने ‘कचहरी हिंदी कोश’ भी प्रकाशित किया। हिंदी के स्नातकोत्तर का पहला पाठ्यक्रम इसी संस्थान की देन है। आर्यभाषा पुस्तकालय और ‘हिंदी शब्द सागर’, ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ के लिए यह संस्थान विदेश तक में समादृत है।

बन गई संपर्क की भाषा

आजादी के आंदोलन की धार को धारा प्रदान करने के लिए देश स्तर पर एक ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई, जिससे जन-जन तक स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रम और राष्ट्रीय नेताओं का संदेश पहुंच सके। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल के नेतृत्व में ‘बंग-भंग’ आंदोलन जोर पकड़ रहा था। आंदोलन के विस्तार और इसके प्रखर होने पर संपर्क की भाषा की जरूरत महसूस हुई। कुछ ऐसे ही उद्देश्य से 1 मई, 1910 को इसी ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ की वाराणसी में बैठक हुई। उसमें हिंदी को समर्पित राष्ट्रीय स्तर की संस्था का विचार आया। इसकी जिम्मेदारी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को दी गई। चार महीने बाद ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ ने 10 अक्टूबर, 1910 को वाराणसी में महामना मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में पहला ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ आयोजित किया। सम्मेलन में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, डा. राजेंद्र प्रसाद, बाबू श्यामसुंदर दास, डा. भगवान दास, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, माधव राव सप्रे, गणेश शंकर विद्यार्थी सरीखे तमाम विद्वान शामिल हुए। तब हिंदी व गैर हिंदी भाषायी राज्यों के लोगों ने महसूस किया कि ‘हिंदी को ही संपर्क भाषा के रूप में देश में प्रतिष्ठित किया जाए ताकि स्वतंत्रता संग्राम का संदेश इसके माध्यम से देशभर में प्रवाहित हो सके।’ महामना सम्मेलन के प्रथम अध्यक्ष और पुरुषोत्तम दास टंडन प्रधान मंत्री बनाए गए।

संपूर्ण कार्यवाही की भाषा

पुरुषोत्तम दास टंडन का अक्खड़पन यहां याद करना जरूरी है। सरकार ने तय किया था कि स्वायत्तशासी संस्थाओं के अध्यक्ष जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होंगे। प्रयाग (अब प्रयागराज) में भी चुनाव हुआ और म्युनिसिपैलिटी की अध्यक्षता का जिम्मा इन्हें मिला। यहां छोटे लाट साहब भी रहते थे। उत्तर प्रदेश का पहला ‘वाटर वक्र्स’ यहीं बना था, लेकिन शहर की आबादी के दबाव में वह अपर्याप्त साबित हो रहा था। तब गवर्नमेंट हाउस के स्विमिंग पूल में पानी इसी वाटर वक्र्स से जाता था। पुरुषोत्तम दास टंडन ने अध्यक्षता संभाली तो इस पर रोक लगा दी। सरकार के लोगों को लिखा- ‘जनता को जल कष्ट है और ऐसी विलास की वस्तु के लिए इतना पानी मैं नहीं दे सकता।’ यहां इस घटना का जिक्र इसलिए कि जिन राजर्षि टंडन ने हिंदी सेवा का व्रत लिया था, उनके मन में भारत की जनता के लिए कितना प्रेम था और वे देश की आजादी के लिए कितने लालायित थे, इसकी समझ बन सके। कुछ इन्हीं गुणों के कारण लाला लाजपत राय ने उन्हें ‘लोक सेवक संघ’ का प्रथम सदस्य बनाया था। उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पहला काम यही किया था कि विधान सभा की कार्यवाही पूर्णत: हिंदी में करने का निर्णय विधान सभा से पारित करा लिया था।

दक्षिण में हिंदी का प्रचार

हिंदी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन (1911) प्रयागराज में हुआ और यहीं मुख्यालय बनाया गया। हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के समन्वय का भी काम आगे बढ़ा। कन्नड़, तेलुगु भाषा का हिंदी कोश प्रकाशित हुआ। पांडुलिपियों, पुराणों का हिंदी-संस्कृत में अनुवाद कर राष्ट्रगौरव का आख्यान अक्षुण्ण रखने का प्रयास हुआ। यहां की ‘राष्ट्रभाषा संदेश’ मासिक पत्रिका में क्रांतिकारियों के विचार भी छपते थे। महात्मा गांधी ने अपने बेटे देवदास गांधी को दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार का जिम्मा दिया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रेरणा से दक्षिण भारत के सभी राज्यों में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना हुई। इसी संस्था की प्रेरणा से ‘बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की नींव वर्ष 1919 में पड़ी। धारी प्रसाद, आचार्य रामवृक्ष बेनीपुरी, मुहम्मद मुनिस, पंडित जर्नादन प्रसाद झा द्विज, गंगाशरण सिंह जैसे बिहार के अनेक राष्ट्रभक्तों ने सम्मेलन को मजबूती प्रदान की।

जगने लगी हिंदी की अलख

वर्ष 1911 में आगरा में सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था। यहां 30 दिन तक ऐतिहासिक कफ्र्यू लगा था। पंडित मदन मोहन मालवीय और रफी अहमद किदवई को सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए आगरा आना पड़ा। इसी दौरान मालवीय जी ने शहर के मध्य में स्थित श्रीमनकामेश्वर मंदिर की बारहदरी में ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। बाद में आगरा कालेज के सामने स्थायी कार्यालय बना। झारखंड के देवघर में भी हिंदी आंदोलन के लिए लोग आगे बढ़े। वहां वर्ष 1929 में ‘हिंदी विद्यापीठ’ की स्थापना की गई, जिसके राजेंद्र बाबू आजीवन कुलपति रहे। वर्धा समेत देश के अन्य हिस्सों में अनेक संस्थाओं ने हिंदी के माध्यम से राष्ट्रीयता की अलख जगाई।

संपन्न बनें हमारी धरोहरें

1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का इंदौर में अधिवेशन हुआ। उसमें महात्मा गांधी ने घोषणा की कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। ‘श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति’ के प्रांगण से ही यह घोषणा हुई थी। इंदौर की इस संस्था ने 1927 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘वीणा’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसमें राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत रचनाएं प्रकाशित होती थीं। दरअसल, अपने देश में साहित्यकारों का एक वर्ग था जो साहित्य को राजनीति के आगे मशाल की तरह विकीर्ण करते हुए गतिमान बनाए रखना चाहता था। आजादी के ‘अमृत महोत्सव’ में ऐसे हिंदी सेवी धरोहरों को और संपन्न बनाने की चेष्टा हम सभी को करनी चाहिए।

गैर-भारतीयों की हिंदी सेवा

इंग्लैंड के फ्रेडरिक पिंकाट और सी.एफ. एंड्रूज जैसे गैर भारतीयों ने भी हिंदी संस्था के निर्माण में योगदान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित पिंकाट साहब की जीवनी 1908 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। अंग्रेज होकर भी ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ काशी के आनरेरी सभासद बने। कुछ ऐसी ही बातें ‘हिंदी भवन’, ‘ विश्वभारती’, ‘शांति निकेतन’ की स्थापना में अपना योगदान देने वाले सी.एफ. एंड्रूज की थीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हीं के साथ बंग भूमि में हिंदी भाषा के उन्नयन के लिए ‘हिंदी भवन’ की स्थापना की। दीनबंधु एंड्रूज ‘हिंदी भवन’ की स्थापना के लिए चंदा जुटाने कोलकाता गए और वहां से उस जमाने में 24 हजार रुपए बतौर चंदा जुटाकर लाए थे।

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