चलते थे कभी देसी चीनी के 32 कारखाने, रंगून और ढाका तक बड़े पैमाने पर होता था निर्यात

वर्षों पूर्व देसी चीनी का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाला यह क्षेत्र आज गुमनामी के अंधेरे में गर्क हो चुका है।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Sun, 20 Sep 2020 06:40 AM (IST) Updated:Sun, 20 Sep 2020 09:57 AM (IST)
चलते थे कभी देसी चीनी के 32 कारखाने, रंगून और ढाका तक बड़े पैमाने पर होता था निर्यात
चलते थे कभी देसी चीनी के 32 कारखाने, रंगून और ढाका तक बड़े पैमाने पर होता था निर्यात

बलिया [इश्तियाक अहमद]। इस जमीं पे था जिसका दबदबा, बुलंद अर्श पर नाम था, उसको फलक ने यूं मिटा दिया कि अब मजा तक के निशां नहीं। मशहूर शायर मिर्जा गालिब की यह पंक्तियां रसड़ा तहसील क्षेत्र के टीकादेवरी नगपुरा गांव पर सटिक बैठती है। वर्षों पूर्व देसी चीनी का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाला यह क्षेत्र आज गुमनामी के अंधेरे में गर्क हो चुका है। टोंस नदी के किनारे बसा यह क्षेत्र उन दिनों इमलिया बन्दरगाह के नाम से जाना जाता था, जिसे आज नगपुरा घाट के रूप में जाना जाता है।

हमेशा गुलजार रहने वाला यह क्षेत्र अब सन्नाटे में है। यहां के कल-कारखानों की बदौलत भरण-पोषण करने वाले अधिकांश लोग अब नहीं रहे लेकिन आज उनके बच्चे काम के अभाव में बेकार बैठे हैं या महानगरों की तरफ रूख कर लिए हैं। दरअसल नगपुरा गांव में लगभग 80 साल पहले देसी चीनी के 32 कारखाने थे। यहां बनने वाली उम्दा किस्म की देसी चीनी के अलावा तम्बाकू व पोस्ता की विदेशों में काफी मांग थी। उन दिनों यहां कि इमलिया बन्दरगाह से इन सामानों का निर्यात बड़े-बड़े नाव व स्टीमरों से रंगून, ढाका समेत अन्य मूल्कों में किया जाता था। नगपुरा की देसी चीनी की एक अलग मिठास थी और उसी मिठास के बदौलत इस चीनी की इन मूल्कों में अलग पहचान थी।

यहां के कारोबारी रंगुन, दिनाजपुर व ढाका में चीनी पहुंचाने के बाद वहां से बड़े पैमाने पर चावल व कपड़े लेकर आते थे। प्रतिदिन सैकड़ों बैलगाडिय़ों पर लदा गुड़ नगपुरा बाजार में कई जनपदों से आता था। जिससे यहां बड़ी रौनक रहती थी। उस दौरान यहां से देसी चीनी, आयातित वस्त्र, चावल व मसालों की खरीदारी के लिए सैकड़ों व्यापारी डेरा डाले रहते थे। देसी चीनी के कारखानों में सैकड़ों मजदूर काम करते थे। वहीं तम्बाकू व पोस्ता की खेती किसानों के लिए काफी लाभकारी साबित होती थी। आधुनिकता की दौर व सरकारी तंत्र की उपेक्षा ने इस उद्योग को चौपट करके रख दिया। आज इस क्षेत्र में सिर्फ एक कारखाना बचा है जिसमें निर्मित चीनी आज भी जौनपुर को सप्लाई की जाती है। इस चीनी से जौनपुर में इमरती बनती है जो काफी दूर-दूर तक जाती है।

नगपुरा ग्राम में वर्तमान में देसी चीनी का कारखाना चलाने वाले एक मात्र उद्यमी राकेश कुमार उर्फ भोला गुप्ता के अनुसार इस गांव में उस दौरान घर-घर देसी चीनी का कारखाना तथा उससे संबंधित उद्योग चलाया जाता था। जबसे दानेदार चीनी का चलन हुआ तथा जल मार्ग बंद हुआ तभी से सभी कारखाने बंद हो गए। सरकारी सहयोग व जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के चलते यह कुटीर उद्योग एक सपना बन गया। भोला बताते हैं कि आज भी जौनपुर के एक व्यापारी द्वारा उन्हें अग्रिम भुगतान कर देसी चीनी बनाने का आर्डर दिया जाता है ङ्क्षकतु गुड़ में मिठास काफी कम होने से पांच किलो गुड़ में मात्र एक किलो चीनी ही बन पाती है। मुनाफे के रूप में केवल मजदूरी ही बचती है। उन्होंने बताया कि शेष दिनों में दूसरा कार्य करके रोजी-रोटी गुजारनी पड़ती है। गांव के अन्य कई वृद्ध जनों ने बताया कि जबसे दानेदार चीनी का चलन हुआ तब ये यह यह उद्योग दम तोडऩे लगा। आज यहां कारखानों का खंडहर ही नजर आता है। सरकार को इस प्राचीन व्यापारिक नगरी की ओर ध्यान देना चाहिए।  

तब नावों पर बीत जाता था महीने भर का समय

गांव के ही सत्यदेव तिवारी, नथुनी गुप्ता, छुन्नू सिंह, रामगोविंद सिंह तथा रमेश गुप्ता ने बताया कि पिता व दादा बताते हैं कि तब एक-एक माह तक का समय उन्हें नावों पर बिताना पड़ता था। नगपुरा के सामान को विदेशों में ले जाने पर जो मजदूरी मिलती थी उससे वे लोग काफी खुशाहल थे किंतु वर्तमान में कारोबार के बंद हो जाने से उनके सामने विकट समस्या पैदा हो गई है।

ऐसे बनती थी देसी चीनी

एक मात्र देसी चीनी उद्योगकर्मी भोला गुप्ता बताते हैं कि सुदूर गांवों से बैलगाड़ी द्वारा लाए गए गुड़ को लोहे के बड़े-बड़े कराहों में पानी में घुलाकर खौलाया जाता था। विशेष चासनी आने पर उसे उतारकर मिट्टी के बड़े-बड़े नादों में उड़ेल दिया जाता था। लगभग 24 घंटे की प्रकिया में मिट्टी के पात्रों में रखने के बाद नीचे बैठी गाढ़ी चीनी को छोड़ सिरा को बाहर निकाल लिया जाता था। गाढ़ी चीनी में नदियों में पाए जाने वाले शैवाल व भिंडी की जड़ को डालकर मरदन के बाद चीनी तैयार होती थी।

नगपुरा से ढाका गए नसीर साहब करते थे आर्थिक मदद

नगपुरा गांव से ही ढाका गए नसीर साहब अब इस संसार में नहीं रहे। वे ढाका में एक बड़े उद्योगपति थे। जब भी नगपुरा गांव में आकर लोगों से रूबरू होते थे उन्हें आर्थिक मदद भी करते थे। उनका पुश्तैनी मकान आज भी यहां मौजूद है।

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