Uday Shankar Death Anniversary : काशी की नर्तन कला के शुभंकर नटराज उदयशंकर, गंडा ननिहाल में बंधवाया

उदय की कला यात्रा की हमसफर गली फिर आगे मुड़ती है और समय का करिश्मा ऐसा कि यही गली फिर एक बार नृत्य की दुनिया से जा जुड़ती है। रूस की प्रसिद्ध बैले नृत्यांगना अन्ना पावलोवा से होती है उनकी मुलाकात। पहले बातें हुईं कुछ लंबी तो कुछ मुलाकातें हुईं।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Sat, 25 Sep 2021 08:02 PM (IST) Updated:Sat, 25 Sep 2021 08:02 PM (IST)
Uday Shankar Death Anniversary : काशी की नर्तन कला के शुभंकर नटराज उदयशंकर, गंडा ननिहाल में बंधवाया
उदयशंकर युवावस्था में पहुंचे तो उनकी नृत्य कला की दक्षता और भी बेहतर हो गई।

वाराणसी [कुमार अजय]। जन्म भले ही झीलों के शहर उदयपुर (राजस्थान 1901) में पाया, किंतु विधि के विधान से फनकारी का गंडा (दीक्षासूत्र) अपने ननिहाल यानी कला साधकों की नगरी काशी में ही बंधवाया। नृत्य-संगीत की तीर्थनगरी का प्रभाव ऐसा कि पिता डा. श्यामशंकर चौधरी की प्रेरणा से नृत्य कला का यह नन्हा साधक उदय चौधरी आगे चलकर देश-दुनिया का महान नर्तक नटराज उदयशंकर हो गया। चित्रकला को साधने की धुन पीछे छूट गई, ऐसी कृपा नटराज की कि शिवतत्व से आलोकित काशी का एक और कंकर नृत्य कला का शुभंकर हो गया।

हां! वास्तविक तथ्य यही है कि कथक कला की काशी में हासिल प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा की बात छोड़ दें तो जमींदार तथा चौधरी की उपाधि से अलंकृत कुलीन ब्राहमण परिवार के बेटे की रुझान चित्रकला के संधान की ओर ही थी। उन दिनों झालवाड़ (राजस्थान) राज्य के शिक्षा सलाहकार थे, उदयशंकर के पिता डा. श्यामशंकर चौधरी, जब उदयशंकर का जन्म हुआ। संगीत और कला के अनुरागी पिता ने ललित कलाओं की ओर पुत्र के लगाव को देखते हुए उसे उसके नाना के घर वाराणसी भेज दिया। यहां उनके भाई पंडित रविशंकर पहले से ही सुरतंत्र सितार की साधना में रत थे।

कैशोर्य की पहली दहलीज लांघकर जब उदयशंकर युवावस्था में पहुंचे तो उन्हें नृत्य कला की दक्षता की ओर ले जा रही वीथिका अचानक ही एक दूसरी दिशा की ओर मुड़ गई। सन 1917 का दौर था जब उदयशंकर ने खुद को बंबई के ख्यातनामा कला संस्थान सर जेजे स्कूल आफ आर्ट्स की कला दीर्घाओं में कैनवास पर तूलिका से जीवन के विविध बिंबों में अपनी ही धड़कनों के रंग भरते पाया। 1920 तक उदय की रंगों में डूबी कूंची लंदन के रायल कालेज आफ आर्ट्स के प्रसिद्धि फलक उनके सशक्त हस्ताक्षर अंकित कर चुकी थी। अंतरराष्ट्रीय सम्मानों की उपलब्धियों से उन्हें महिमामंडित कर चुकी थी। हालांकि उस वक्त भी उदय का नृत्य अभ्यास छूटा नहीं था, या यूं कहें कि बनारसी नूपुरों की झनकार का क्रम अभी तक टूटा नहीं था।

यहां से उदय की कला यात्रा की हमसफर गली फिर आगे मुड़ती है और समय का करिश्मा ऐसा कि यही गली फिर एक बार नृत्य की दुनिया से जा जुड़ती है। रूस की प्रसिद्ध बैले नृत्यांगना अन्ना पावलोवा से होती है उनकी मुलाकात। पहले बातें हुईं, कुछ लंबी तो कुछ मुख्तसर मुलाकातें हुईं। उदय से परिचय हुआ तो बनारसी कथक कला की नुमाइंदगी करने वाले घुंघरुओं की झनकार भी अनचिन्ही न रही। अन्ना के प्रोत्साहन से उदयशंकर फिर एक बार आर्ट गैलरी से निकलकर एक दक्ष कथक नर्तक के रूप में देश-दुनिया के मंचों पर छाते चले गए। अन्ना के बैले ग्रुप के साथ दो वर्षाें तक थिएटरों में धूम मचाते चले गए। सन 1924 में अपना स्वतंत्र बैले ग्रुप बनाकर वे भारतीय नृत्यों की लगातार प्रस्तुतियां देते रहे।

उदय सन 1929 में फिर भारत आए। यहां से शुरू हुआ उनकी प्रयोगधर्मिता का सिलसिला। सफर के इस मोड़ पर उन्होंने शंकरम नंबूदरी से कथकली, थंडापा पिल्लई से भरतनाट्यम व साथ में मणिपुर के लोकनृत्यों की बारीकियों को साधा। भारतीय नृत्यों के साथ टर्किश व अरैबियन नृत्यों के चमत्कारी संयोजन से उन्होंने एक नवीन नृत्य शैली का सेतु बांधा। एक ऐसा भी समय आया, जब बनारस के तिलभांडेश्वर मुहल्ले और बंगाली टोला स्कूल के मैदान की कुछ चिन्ही-अनचिन्ही पहचान के साथ सात समंदर पार पहुंचे उदयशंकर की ओरिएंटल शैली अंतरराष्ट्रीय कला जगत की सबसे लोकप्रिय बैले नृत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गई।

नृत्य नाटिकाओं की नित नई सर्जना : उदयशंकर ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से जिन नृत्य नाटिकाओं को अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के शिखर दिए, उनमें शिव-पार्वती युग्म नृत्य, शिव तांडव, राधा-कृष्ण रास, श्रम व यंत्र, जीवन की लय, बुद्धचरित तथा सामान्य क्षति जैसी प्रस्तुतियों ने विश्व स्तरीय कीर्तिमान स्थापित किए। भारत में इस बैले शैली को और समृद्ध बनाने की दृष्टि से उन्होंने अल्मोड़ा में कला केंद्र की स्थापना के साथ ही कल्पना नाम से एक फिल्म भी बनाई। दोनों प्रयास अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सके। भारी माली नुकसान भी उठाना पड़ा। पर, अपने इन प्रयासों से उन्होंने नृत्य कला की दुनिया अपार यश और सिद्धि प्राप्त की। 26 सितंबर 1977 को भारतीय नृत्यों का ध्वजाधारी यह कलाकार कोलकाता में चिरनिद्रा को प्राप्त हुआ। बनारसी नूपुरों की लयकारी एक बार फिर कुछ समय के लिए भंग हो गई।

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