वाराणसी में चेतगंज की नक्कटैया : टूटना एक रिवाज का, बनारस के खांटी अलमस्त अंदाज का
रीतेपन का एक अजीब सा अहसास रविवार को उदासियों का सबब बनकर बनारस वालों के दिल तक उतर गया लगा मानो किसी पिटारे में बंद उमंग उल्लास का कोई खजाना बस यूं ही मुठ्ठी के रेत सा फिसल गया। ये बेचैनी बे-सबब नहीं थी।
वाराणसी, कुमार अजय। रीतेपन का एक अजीब सा अहसास रविवार को उदासियों का सबब बनकर बनारस वालों के दिल तक उतर गया लगा मानो किसी पिटारे में बंद उमंग उल्लास का कोई खजाना बस यूं ही मुठ्ठी के रेत सा फिसल गया। ये बेचैनी बे-सबब नहीं थी। यह पहली बार था जब 19 वीं सदी के पूर्वाद्ध से लेकर आज के दिन तक के बीच बनारस के चार लक्खा मेलों (लाखों की भीड़ वाले) की सूची में बड़े रूआब के साथ शुमार चेतगंज के नक्कटैया जुलूस का मेला इस दफा टूट गया था यह महज एक रिवाज का टूटना भर नहीं था इसे ऐसे समझें तो बेहतर होगा कि बनारसियों की मस्त मिजाजी को सबसे अधिक रास आने वाला एक अलमस्त रतभर्रा (पूरी रात) हंगामी जश्न का छलकता कलश टूट गया था।
रौनकों की बारात और यह झांय-झांय करती रात
काशी के सबसे बड़े रौनकों की बारात से सजे रतभर्रा मेले की पहली गैर हाजिरी की खोज खबर लेने निकले जागरण प्रतिनिधि का मन भी विशाल मेला क्षेत्र की विरानी देखकर बूझ सा गया। याद आए नक्कटैया के वे पचीसियों सुनहरे दिन जब पिशाचमोचन, मलदहिया लहुराबीर, सेनपुरा, रामकटोरा, चेतगंज व लहंगपुरा तक के विशाल मेला क्षेत्र में लाखों की भीड़ से सड़के-गलियां पटी पड़ी होती थीं। रोशनियों व रौनकों की ऐसी सजीली बारात कि अगले दिन सुबह सीधे भोर से मुलाकात, मेला क्षेत्र में दिन-रात नहीं होती थी। आज उन्हीं मनसायन गलियों-सड़कों पर सियापा लोट रहा था। न वे आलीशान स्वागत द्वारे ना ही वह उत्सवी तरंगों में भिंगो देने वाले रंग-बिरंगे उजालों की बौछारें। न ही जेब टटोलने को मजबूर कर देने वाली ले रेवणी...चूड़ा। या फिर चिनिया बादाम...बालू की भूंजी की पुकार, न तो चाट गोलगप्पे के ठेले ना ही भोपूं बजाते मेले का मजा ले रहे झुनझुना खनकाते नन्हें-मुन्नों के रेले। चुंगी कचहरी के सूने पड़े मैदान में झूले चरखियों की चरर-मरर की जगह झिंगुरों की झांय-झांय हर तरफ खामोशी का आलम हर ओर गहरी चुप्पी की भांय-भांय। पिछले तीस सालों से बिना किसी गैर हाजिरी के मेले का लुत्फ उठा रहे नाटीइमली निवासी ओम प्रकाश गुप्ता बताते हैं कि एक बार 1977 में भी दंगों के कारण मेला स्थगित हुआ था। किंतु कर्फ्यू के बाद नक्कटैया का जुलूस निकालकर उस खाली पन की भरपाई कर दी गई थी। आज पहली बार किसी उत्सव की रुकावट को लेकर इतनी पीड़ा महसूस हुई है।
जब चुप्प थे लड़वईया आवाज बनी नक्कटैया
श्रीचेतगंज रामलीला समिति के अध्यक्ष अजय कुमार गुप्त (बच्चू साव) बताते हैं इसे विदंबना ही कहेंगेकि बरतानवी हुकुमत भी इस ऐतिहासिक उत्सव क्रम नहीं भंग कर पाई दुसह परिस्थितियों ने उसी उत्सव की कड़ी दरका दी। एक तो कठिन आपद काल (कोविड की मार) दूसरी तरफ समिति की माली खस्ताहाली वजह बनी इस अवरोध की। आयोजकों का कहना है कि नक्कटैया को महज एक उत्सव के रूप में नहीं धरोहरी थाती के रूप में देखा जाना चाहिए। क्रांतिवीर संत बाबा फतेहराम ने एक समय अंग्रेजी हुकुमत की हठधर्मी को चुनौती देते हुए इसी नक्कटैया को देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले पैगामी उत्सव का रूप दिया था। तब झांकियों की विषयवस्तु मुंशी प्रेमचंद, बाबू जयशंकर प्रसाद जैसे मनीषी तय करते थे। जंजीरों में जकड़ी भरत माता की उदास छवि या फिर क्रांति पुरुष आजाद की कोड़ो से लहुलुहान पीठ। बिना कुछ कहे आमजनता के मन को झकझोर देती थी, कोई संवाद नहीं कहीं कोई नारा नहीं फिर भी क्या पढ़े लिखे और पच्चीसों मिल पैदल चलकर नक्कटैया का जुलूस देखने आए बेपढ़ किसान को भी आंदोलन की मुख्यधारा से जोड़ जाती थी।
सहेज संभाल को चाहिए मदद वाले हाथ
रामलीला के आयोजन से 25 वर्ष से जुड़े़ रहे महेंद्र निगम का कहना है कि दो-दो रूपये के चंदे से अब यह विशाल आयोजन संभलता नहीं काशीवासियों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए आज जरूरत इस बात की है कि शासन इन सांस्कृतिक थातियों की साज-संभाल के लिए मदद का हाथ आगे बढ़ाए ताकि आने वाली पीढ़ियां अपने संस्कारों और संस्कृति से अपरिचित न रह जाएं।
एदवां नाहीं अइलिन धीया, मसोसत हव जिया
आज पहली बार ही यह भी रहा कि करवाचौथ का व्रत के पारण के बाद और जगह ब्याही गई चेतगंज की बेटियां नक्कटैया के आमंत्रण पर मायके नहीं आ पाईं यकीनन सोमवार की सुबह भी ऐसी पहली सुबह होगी जब नकदी त्योहारी के साथ रेवणी-चूड़ा के ठोंगो से नहीं हो पाएगी बिटिया रानियों की विदाई वाली गोदभराई।