हिंदी दिवस 2021 : महात्मा गांधी ने कहा था कि- ‘दुनिया वालों से कह दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता‘

14 सितम्बर का दिन हिन्दी भाषा-भाषी समाज के लिए गौरव का दिन है तो दूसरी तरफ छल का भी। गौरव इस अर्थ में कि हिन्दी ने अथक संघर्ष की यात्रा करके यह मंजिल हासिल की और छल इस अर्थ में कि हिन्दी को अपना वाजिब हक हासिल नहीं हुआ।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Mon, 13 Sep 2021 02:49 PM (IST) Updated:Mon, 13 Sep 2021 03:10 PM (IST)
हिंदी दिवस 2021 : महात्मा गांधी ने कहा था कि- ‘दुनिया वालों से कह दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता‘
14 सितम्बर का दिन हिन्दी भाषा-भाषी समाज के लिए गौरव का दिन है तो दूसरी तरफ छल का भी।

वाराणसी, जेएनएन। हिन्दी दिवस 14 सितम्बर का दिन हिन्दी भाषा-भाषी समाज के लिए एक तरफ गौरव का दिन है तो दूसरी तरफ छल का भी। गौरव इस अर्थ में कि हिन्दी ने अथक संघर्ष की यात्रा करके यह मंजिल हासिल की और छल इस अर्थ में कि हिन्दी को अपना वाजिब हक आजतक हासिल नहीं हुआ। आज के दिन प्रतिवर्ष ‘दिवस‘-‘सप्ताह‘-पखवाड़ा मनाने के बैनर-झण्डे लटकते मिलेंगे, बड़े जोर शोर से भाषा-संस्कृति के नारे लगेंगे, पाण्डित्यपूर्ण भाषण होंगे, विद्वानों (?) को दान-दक्षिणा मिलेगा और अन्ततः यह अनिवार्य-सा प्रहसन खत्म हो जायेगा! दरअसल भाषा का सवाल, कभी भी सिर्फ भाषा का सवाल नहीं होता। वह बुनियादी तौर पर राष्ट्र और उसकी जनता की अस्मिता का सवाल भी होता है। भाषा ही वह सेतु है, जिसके सहारे राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना जनता के दिल और दिमाग में उतरती है। 15 अगस्त 1947 को बी.बी.सी लंदन पर बोलते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि- ‘दुनिया वालों से कह दो, गांधी अंगे्रजी नहीं जानता‘। इस कथन में उस राष्ट्रीय स्वाभिमान की व्यंजना है, जिसका स्वप्न समूचे हिन्दुस्तान ने देखा था।

सितम्बर, 1877 में इलाहाबाद के ‘हिन्दी उद्धरिणी सभा‘ के उद्घाटन में ‘हिन्दी की उन्नति‘ पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने व्याख्यान दिया था, अवसर बालकृष्ण भट्ट के सम्पादन में प्रकाशित ‘हिन्दी प्रदीप‘ के विमोचन का था। वह व्याख्यान पद्यबद्ध हैरू जिसमें 98 दोहे हैं। व्याख्यान में भारतेन्दु की मूल स्थापना हैः- ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल‘ - भारतेन्दु जानते हैं कि संस्कृत और फारसी से अब काम चलने वाला नहीं है क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजी ज्ञान का दबाव सामने है इसलिए ‘अपनी भाषा‘ के बिना मनुष्य अपनी हीनता समाप्त नहीं कर सकता। इस भाषण में भारतेन्दु आगे कहते हैं कि अंग्रेजी में जो ज्ञान-विज्ञान है, उसे सीखकर हिन्दी में ले आना चाहिए। सारा ज्ञान वेद-पुराण में है, नई शिक्षा मनुष्य को बर्बाद करने वाली है-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ऐसा नहीं मानते। वे अंग्रेेजी शिक्षा मात्र का विरोध नहीं करते, अंग्रेजी के प्रभुत्व का विरोध करते हैं। वह हिन्दी का समर्थन करते हैं लेकिन अंग्रेजी में बहुत-सा ज्ञान है, विज्ञान का विकास है- उसे सीखने की बात बार-बार करते हैं। वे यह सवाल उठाते हैं कि ‘होय मनुष्यहिं क्यों भये हम गुलाम वे भूप‘। मनुष्य होकर भी अंग्रेज राजा और हम गुलाम क्यों हो गये? फिर वे कारण बताते हैं:-

‘कल के कल बल छलन सो छले दूत के लोग

नित-नित धन सों घटत है बढ़त दुःख सोग

मारकिन मलमल बिना चलत कछु नहिं काम

परदेसी जुलहान के मानहु भये गुलाम‘

भारत विज्ञान में, कला-कौशल में पीछे है, इसलिए अंगे्रजों द्वारा छला गया। औपनिवेशिक व्यवस्था की गहरी समझ भारतेन्दु के यहां साफ है। परदेशी वस्तु और भाषा दोनों खराब है, उससे परतंत्रता आती है।

दरअसल हिन्दी ने इस परतंत्रता के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी और अपना मुकाम हासिल किया। वह स्वाधीनता आंदोलन की संघर्ष चेतना का वाहक बनी और नवजागरण की ज्ञान चेतना की भी। यह दिलचस्प है कि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौर में इस बहुभाषी देश ने हिन्दी को सर आंखों पर बिठा लिया। इसके पीछे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस जैसे गैर हिन्दी भाषी लोग थे तो फ्रेडरिक पिन्काट, जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, सी. एफ. एण्ड्रूज, डाॅ. एनीबेसेण्ट जैसे यूरोपीय लोग भी थे, जिन्होंने अपनी समृद्ध भाषाओं के मुकाबले हिन्दी की हिमायत की थी। हिन्दी आज जहां खड़ी है उसके पीछे अहिन्दी भाषियों की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है। बंगाल से पहला हिन्दी अखबार छपा, पत्रिका निकली, नगेन्द्रनाथ बसु के संपादन में ‘हिन्दी विश्वकोश‘ वहीं से छपा और हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वाले नेताओं में तमिलनाडु के गोपाल स्वामी आयंगर की भूमिका भी कम नहीं है। इसलिए हिन्दी के प्रति अतिरिक्त उत्साहधारी लोग ध्यान दें-हिन्दी भाषा या साहित्य देश के किसी भी अन्य महत्वपूर्ण भारतीय भाषा से या उसके साहित्य से श्रेष्ठ नहीं हैं-हिन्दी की एकमात्र विशेषता यह है कि वह देश में सबसे अधिक बोली व समझी जाती है। हिन्दी इसीलिए भारतीय गणराज्य की संपर्क भाषा है। आज के दिन जो लोग हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का संकल्प लेते हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में स्वीकृति मिलने का कोरस गान करते हैं या हिन्दी की वैश्विक उपस्थिति की चर्चा करते हुए दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाये जाने का बयान करते हैं, वे इस सवाल पर प्रायः चुप हो जाते हैं कि आखिर क्यों, अपने ही देश में ‘हमारी राष्ट्रभाषा‘ ठीक ठीकाने से राजकाज की भाषा नहीं बन पायी है। जबकि आलम यह है कि हिन्दी दिवस जैसे आयोजनों के माध्यम से हिन्दी को तथाकथित राजभाषा और उस बहाने हिन्दी के विकास पर जो सरकारी खर्च होना शुरू हुआ है, उसने तमाम भारतीय भाषाओं में हिन्दी को लेकर पूर्वग्रह पैदा किया और गैर हिन्दी भाषा-भाषियों के मन से आज भी यह पूर्वग्रह गया नहीं है कि हिन्दी को सरकारी प्रश्रय के कारण बढ़ावा मिला है। जबकि असलियत यह है कि सरकार ने ऊपर-ऊपर से ऐसे प्रश्रय देने या जनभावनाओं को सहलाने का ढांेग भले किया हो लेकिन हिन्दी के विस्तार में किसी भी सरकार की कोई खास भूमिका नहीं रही।

हिन्दी की ताकत के पीछे एक तरफ 19वीं-20वीं शताब्दी के महान साहित्यकारों का संघर्षशील जज्बा है, जो उन्हें अपनी भाषा में ऊर्जा, उत्साह और ज्ञान चेतना का संकल्प भरता था तो दूसरी तरफ राजनीतिक पत्रकारों का मिशनरी भाव है जो हिन्दी के द्वारा भारत मुक्ति का आख्यान रच रहे थे। इस यात्रा में हिन्दी को अंगे्रजी राज की भाषा नीति के कुचक्र से लड़ना पड़ा और उर्दू की आपसदारी से भी झगड़ना पड़ा था। इस भाषा-विवाद की कहानी फोर्ट विलियम काॅलेज से शुरू होती है और स्वतंत्र भारत तक जारी रहती है। गिलक्राइस्ट द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दुस्तानी‘-बालमुकुन्द गुप्त और प्रेमचन्द तक आते-आते नये संस्कार ग्रहण कर ली थी। गांधी जी ने सही कहा था कि हिन्दी वह भाषा है, जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी और अरबी लिपि में लिखी जाती हैं। वह हिन्दी एकदम संस्कृतनिष्ठ नहीं है, न वह एकदम फारसी शब्दों से लदी हुई है। प्रेमचन्द ने कौमी जबान के तौर पर हिन्दी के लिए कहा था कि मैं इसे उर्दू या हिन्दी अलग-अलग नाम न देकर हिन्दुस्तानी कहता हूँ। प्रेमचन्द ने यह भी कहा था कि भाषा के साथ किसी तरह का शुद्धतावाद नहीं चल सकता। यह महत्वपूर्ण है कि पुरूषोत्तमदास टंडन ने हिन्दी के शुद्धिकरण का जो अभियान चलाया था, उसे गांधी ने नकार दिया था। बाद में निराला जैसे कवि ने असहमति व्यक्त करते हुए व्यंग्य में कहा कि ‘अफसोस यह है कि हिन्दी वालों के ‘एक अदृश्य दुम‘ बनी हुई है।‘

आज हिन्दी अगर बढ़ी है तो इसके बहुत सारे कारणों में एक कारण हिन्दी-उर्दू के अन्तर को काफी हद तक दूर करके बोलचाल के नजदीक लाने की सफल कोशिश भी है। हिन्दी के आगे बढ़ने का बड़ा कारण नवजागरण की चेतना भी है, जो साहित्य के साथ-साथ ज्ञान के दूसरे अनुशासनों को समृद्ध करने के लिए संकल्पबद्ध है। हिन्दी के विकास में भागीदार दूर दराज के गाँव कस्बों से निकले विद्यार्थी हैं, जो ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं और हिन्दी के रचनात्मक परिदृश्य को समृद्ध कर रहे हैं।

सवाल यह है कि हिन्दी भाषा के व्यापक परिदृश्य में आज की हिन्दी जिसकी निर्मिति 19वीं शताब्दी के नवजागरण में हैं, ने क्या अपना मार्ग प्रशस्त किया है, उन्नति की है या हिन्दी की क्या स्थिति है-यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। भाषा की समृद्धि साहित्य मात्र से नहीं होती, भाषा समृद्ध होती है-ज्ञान अंतरिक्ष के विस्तार से, ज्ञान की विभिन्न सरणियों के वहन से और चिंतन-विमर्श की क्षमता से। जाहिर है कि हिन्दी ने 19वीं शताब्दी के नवजागरण में इस दायित्व का सम्यक् निर्वहन किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके सहयोगियों ने काव्य, निबंध, नाटक, कहानी जैसी साहित्य विधाओं के अतिरिक्त जनसाधारण में नई चेतना का प्रसार करने हेतु, सर्वसाधारण की मानसिक चेतना का उन्नयन हेतु-वैचारिक लेखन का सूत्रपात किया और ‘बनारस अखबार‘ (1845)य सुधाकर (1850)य बुद्धिप्रकाश (1852) य प्रजा हितैषी (1861)य कविवचनसुधा (1867)य हरिश्चन्द्र चन्द्रिका (1873)य हिन्दी प्रदीप (1877)य ब्राह्मण (1882)य भारतेन्दु (1873)य आनन्दकादम्बिनी (1883) जैसी पत्रिकाओं द्वारा हिन्दी समाज के पाठकों में ज्ञानात्मक विवेक का संचार किया। यह कार्य किसी भी साहित्यिक लेखन से अधिक आवश्यक था। इस तरह ज्ञान चेतना और विवेकशीलता की वृद्धि करने वाला साहित्य विवेक स्वाधीनता प्राप्ति या उसके कुछ बाद तक कायम रहा और हिन्दी को राष्ट्रीय दायित्व के प्रति तत्पर रखा।

आज लगभग 150 साल बाद हिन्दी भाषा और साहित्य से सम्बद्ध लोगों को जवाब देना चाहिए कि हिन्दी की वास्तविक स्थिति क्या है? क्या हिन्दी ज्ञान की समस्त शाखाओं की विचार चेतना को वहन करने योग्य बन सकी है? विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में क्या कोई मौलिक उपलब्धि है? प्रसंगवश यह ध्यान रखने योग्य है कि ‘वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति‘, ‘गणित का इतिहास‘, ‘गणकतरंगिणी‘, ‘चलन-कलन‘, ‘भारतीय अंक पद्धति की कहानी‘, ‘सार्थवाह‘, ‘वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा‘, ‘भारत का ऐतिहासिक भूगोल‘, ‘विज्ञान और समाज‘, ‘भारत में अंग्रेजी राज‘, ‘प्राचीन भारतीय सभ्यता का इतिहास‘, ‘भारत की वनस्पति‘, ‘सूर्य सिद्धान्त‘, ‘हिन्दू रसायनशास्त्र का इतिहास‘, ‘चीन में तेरह मास‘, ‘पाक कला‘ तथा ‘पक्षि विज्ञान‘ जैसी महत्वपूर्ण कृतियां नवजागरण की ज्ञान चेतना का बयान करती हैं और आज भी अपने ढग की अनोखी रचनाएं हैं लेकिन स्वाधीन भारत में लेखकों की इतनी प्रतिष्ठा, इतना सम्मान, तरह-तरह की प्रोत्साहन राशि और अध्येतावृत्तियां, केन्द्र व राज्य की विभिन्न अकादमियां और दर्जनों विश्वविद्यालय हैं-पर क्या हिन्दी भाषा-भाषी समाज के ज्ञान अन्तरिक्ष को विस्तृत करने का संकल्प कहीं दिखता है? हिन्दी प्रदेश में नवजागरण का यह विपर्यय इतना शीघ्र होगा, इसकी कल्पना किसी ने न की होगी! आज हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या और राशि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है? लेकिन क्या हिन्दी भाषी जनता की आय में उतनी वृद्धि हुई है? हिन्दी में बहुत से लेखकों का बोलबाला है, साहित्य के उच्च से उच्चतर सिद्धपीठों पर बैठे लोगों का अपना-अपना गिरोह है जो पुरस्कारों को न सिर्फ लालसा भाव से देखते हैं बल्कि इसके लिए तरह-तरह के साहित्येत्तर तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, रिरियाते हैं पर सार्वजनिक स्तर पर सदाचार और त्याग का नाटक करते हैं। चयन समितियों में शामिल प्रतिष्ठित लेखक प्रायः मठाधीश से हैं-उनके प्रति पुरस्कार व्याकुल साहित्यकारों की श्रद्धा (?) को देखकर साहित्य-संस्कृति से घृणा का भाव बनने लगता है। साहित्य में यह निष्ठाएं बदलने का दौर है और कुछ चतुर-सुजान तो कई सारे मठाधीशों को साधने के साथ-साथ साहित्यिक रंगरूटों की लपलपाती लालसाओं वाली भर्ती प्रक्रिया भी शुरू कर चुके हैं।

हिन्दी भाषा में जिस बड़े पैमाने पर अधिकारी रचनाकार, बुद्धिजीवियों और प्रोफेसर कवि-लेखकों की बाढ़ आई हैं-वह वाकई चकित करने वाली है और हिन्दी में लगभग हर तीसरे-चैथे आदमी की कवि-लेखक होने की गारंटी है! एक कवि-आलोचक तो स्वयं को गहरे परम्परा बोध का कवि मानकर दूसरों को टुच्चे कहकर मजाक उड़ाते हैं। एक दूसरे कवि-आलोचक हैं, जो कविता में क्रांतिकारी जनवाद से नीचे नहीं उतरते, लेकिन जीवन में वीभत्स प्रतिगामिता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। निवेदन है कि जरा इन ‘महान‘रचनाकारों के आसपास थोड़ी देर कान डालकर सुनिए। संगोष्ठियों में अपने क्रांतिकारी वक्तव्य के बाद भोजन, जलपान और शराब के बीच ये अपनी असली चिंताओं- अकादमिक समितियों के सदस्य बनने का जुगाड़, रीडर या प्रोफेसर बनने की लामबंदी, किसी विश्वविद्यालय में परीक्षक बनने की जुगत, विदेश यात्रा के लिए समिति सदस्य के सम्मुख याचना करना, क्लास में न पढ़ाना पढ़े इसके लिए खुशामद करने से लेकर महिला सहकर्मियों या शोध छात्राओं के गाॅसिप में मशगूल - ये महानुभाव आकण्ठ डूबे हैं लेकिन बात मुक्ति और अन्तःकरण के आयतन की करते हैं। क्या ये लोग हिन्दी की ज्ञान परम्परा के वारिस होने योग्य है या उसके लिए जरा भी चिंतित हैं? ये लोग हिन्दी साहित्य की महान परम्परा कबीर-सूर-तुलसी-जायसी, भारतेन्दु-प्रसाद-निराला-मुक्तिबोध, प्रेमचन्द-रामचन्द्र शुक्ल-यशपाल-राहुल संाकृत्यायन का नाम लेकर लाखो-लाख बटोरते हैं लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की महान विरासत की रक्षा और विकास करेंगे, इनसे ऐसी आशा करना व्यर्थ है। पर इस अकाल महत्वाकांक्षा और आत्ममुग्ध महानता के दौर में भी कुछ ऐसे लोग है जो ईष्र्या-द्वेष, लाभ-लोभ से परे अपने-अपने ढंग से विभिन्न शहरों और कस्बों में तीनतिकड़म और चाटुकारिता से दूर भाषा साहित्य की श्रीवृद्धि में लगे हुए हैं। वे फिलहाल ओझल अवश्य हैं लेकिन अपने विवेचन-विश्लेषण से नया आलोक सृजित करने की संभावना रखते हैं। इसलिए हिन्दी दिवस आत्मपहचान और मूल्यांकन का दिन है और हिन्दी को संवादी बनाने का भी।

लेखक : डा. समीर पाठक, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, डी.ए.वी. पी.जी. काॅलेज, वाराणसी। 

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