वाराणसी के लाल बहादुर शास्‍त्री जब प्रधानमंत्री बने तो अपने घर नहीं गरीबों के छत की थी चिंता

प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वें सामान्य नागरिक की तरह व्यवहार करते थे। पड़ोस में रहने वाले फुफेरे भाई श्याम मोहन 1965 के उस दिन की यादों में खो गए। जिस रोज पीएम के रूप में शास्त्री जी घर आए बताते हैं कि तब उनकी उम्र 14 साल की थी।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Tue, 08 Jun 2021 09:20 PM (IST) Updated:Wed, 09 Jun 2021 01:25 PM (IST)
वाराणसी के लाल बहादुर शास्‍त्री जब प्रधानमंत्री बने तो अपने घर नहीं गरीबों के छत की थी चिंता
पड़ोस में रहने वाले शास्त्री जी के फुफेरे भाई श्याम मोहन 1965 के उस दिन की यादों में खो गए।

वाराणसी [संजय यादव]। जब सादगी व ईमानदारी की बात होती है तो लोगों के दिमाग में सबसे पहले देश के दूसरे प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री का नाम चलने लगता है, और चले भी क्यों ना। प्रधानमंत्री रहते हुए जब 1964 को काशी के लाल अपने रामनगर पैतृक आवास पर पहुंचे थे तो तत्कालीन काशी नरेश डा. विभूति नारायण सिंह उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की थी। मधुर वाणी के धनी शास्त्री जी यह कहते हुए खुद नंगे पांव किले में पहुंचे थे कि उनके राजा तो काशी नरेश ही हैं।

सबसे बड़ी बात पीएम बनने के बाद भी वें सामान्य नागरिक की तरह व्यवहार करते थे। पड़ोस में रहने वाले शास्त्री जी के फुफेरे भाई श्याम मोहन 1965 के उस दिन की यादों में खो गए। जिस रोज पीएम के रूप में शास्त्री जी घर आए थे। वे बताते हैं कि तब उनकी उम्र 14 साल की थी। दोपहर का वक्त था, घर पर सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी जा रही थी। पंडित जी प्रसाद देने बढ़े तो जांच के लिए सुरक्षा कर्मियों ने लपक लिया।भैया (शास्त्री जी) मुस्कुराते हुए बोले- यह मोहल्ला- मेरा घर है यहां चिंता की कोई बात नहीं। उन्होंने प्रसाद माथे लगा लिया था।नौ जून को प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे पहले बार रामनगर आए थे तो लोगों की आंखें भर आई थीं। उन्हे देखने के लिए रामनगर के अलावा वाराणसी, मीरजापुर व मुगलसराय की जनता पहुंची थी। ढ़ाई घंटे तक रहने के बाद उनका काफिला रवाना हो गया। आज भी रामनगर की गलियों में सादगी व ईमानदारी की चर्चा होती है। आवाज में उनकी स्मृतियां सहेजकर रखी गई हैं।

लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। इनके पिताजी का नाम शारदा प्रसाद और माताजी का नाम रामदुलारी देवी था। इनकी पत्नी का नाम ललिता देवी था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। इन्हें जब काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिली तो इन्होंने अपना जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हटाकर अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया और कालांतर में शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। उन्होंने देश को न सिर्फ सैन्य गौरव का तोहफा दिया बल्कि हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह पर भी उसे आगे ले गए। वे बेहद ही सादगीपसंद व ईमानदार राजनेता थे। वे अत्यंत ही निर्धन परिवार के थे। स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे गंगा नदी पार कर दूसरी ओर बसे स्कूल पढ़ने जाते थे। इन्होंने बाद में काशी विद्यापीठ स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की थी। पीएम बनने के बाद जब वे रामनगर आए तो सुबह से ही पुलिस का पहरा लग गया था। शास्त्री जी की कार के आगे पीछे दर्जनों गाड़ियां थीं। चौक पर काफिला रुका और उन्होंने अंगरक्षकों को रोक कर सीधे सबसे पहले किले में काशीनरेश डा. विभूति नारायण सिंह से मिलने पहुंचे। वहां से पैदल ही गली से होकर घर आए थे। उनके चाचा काली प्रसाद और किशोरी लाल ने दरवाजे पर अगवानी की थी।

शास्त्री जी! अब तो अपना मकान बनवा लीजिए

काशी नरेश के किले से महज डेढ़ सौ मीटर के फासले पर घुमावदार गली के दूसरे मोड़ पर महज सवा बिस्वा जमीन पर पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कमरे में अभी वह लालटेन सहेज कर रखी गई है, जिसकी रोशनी में उन्होंने पढ़ाई की थी। जब वे रामनगर आए थे तो सबका हाल पूछते मिलते-जुलते रहे। तभी पड़ोस के राजनारायण लाल मुलाकात के लिए आ गए। बोले कि शास्त्री जी! अब तो अपना मकान बनवा लीजिए। उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर वो सहम गए। शास्त्री जी का कहना था कि मेरा तो अभी बहुत अच्छा है। मेरे देश की बहुतायत जनता के पास तो झोपड़ियां ही हैं। चिंता है कि पहले उनके मकान बन जाएं फिर अपने मकान के बारे में सोचूंगा। उस दिन वे ढाई घंटे घर में रहे। फिर कभी नहीं आ सके। 11 जनवरी 1969 को हम लोग हिल गए, जब उनके हमेशा के लिए इस दुनिया से चले जाने की खबर आई।

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