काशी विश्वनाथ कारिडोर : लोक के देवता लोक मानस में घर के मुखिया की तरह आदर सम्मान पाते हैं
शिवपुरी काशी में काशीपुराधिपति विश्वेश्वर और उनके काशीवासी भक्तों के बीच का संबंध सेतु बस इसी परिभाषा के स्तंभों पर ढाला गया है। बाबा और भक्तों के बीच का रिश्ता भावनाओं के बिरवे की तरह मात्र नेह-नीर से सींच कर पोसा-पाला गया है।
वाराणसी, कुमार अजय। अबे! का रे...बचनुआ बाबा क नेवता दरबारे पहुंचल की नाहीं? संगही देवी अन्नपूर्णा, गंगा मईया अउर भैरो बाबा क चौकठ (चौखट) पर भी अरजी टंक जाए के चाही। तब्बे लगन क काम आगे बढ़ी। नेवता-हंकारी के टहल शुरू होई, मंडप में हरदी (हल्दी) चढ़ी।
भगवानपुर स्थित ओझा हाउस में बिहाने से ही इसी तरह की हड़बोंग मची हुई है। गृह स्वामी रवींद्र ओझा सिर पर आसमान उठाए हुए हैं। घर के किशोरों-नौजवानों को पिछियाए हुए हैं कि जल्द से जल्द घर में 13 दिसंबर को पड़े मंगल कारज का पहला आमंत्रण पत्र बाबा यानी बनारस वालों के घरऊ आराध्य श्रीकाशी विश्वनाथ के दरबार तक पहुंचा आएं। उनकी आज्ञा मिल जाए तो वे कार-परोजन का शेष सारा कार्य आगे बढ़ाएं। दृष्टांत से दो बातें स्पष्ट हैं, एक तो यह कि बाबा की अनुमति के बिना बनारसियों का कोई भी आयोजन प्रारंभ ही नहीं हो सकता। दूसरा यह कि समूचे विश्व के नाथ बिसेसर (विश्वेश्वर) से डायरेक्ट कनेक्शन होने के नाते उनका काशी निवासी 'गण किसी भी प्रकार से उनके ब्रह्म स्वरूप के साथ जुड़े जप-तप व कर्मकांडों का बोझ नहीं ढो सकता। उसके लिए बाबा घर के मुखिया जरूर हैं पर वह उनके अगम-अगोचर स्वरूप की जगह भोले के सहज-सरल अड़भंगी रूप को ही जानता है। बेलपत्र व गंगाजल चढ़ाने मात्र को ही बाबा के आराधन का उपादान मानता है।
अब जहां देवत्व के घनत्व पर अपनत्व (आत्मीयता) का महत्व भारी पड़े वहां सहज ही त्रैलोक्येश्वर अपने प्रभाव और प्रताप के घेरों का अनुशासन तोड़ कर स्वयं बाहर निकल आते हैं। ब्रह्म और जीव के अंतर को पाटकर बाबा का चोला धारण कर भक्तों के मन में पैठ जाते हैं। ऐसा जब भी होता है शास्त्रीय बाध्यताओं को तोड़ लोक मान्यताएं स्थापित हो जाती हैं। शास्त्रोक्त अनुशासन धरे के धरे रह जाते हैं। भक्त और भगवान के बीच की सारी दूरियां मिट जाती हैं।
शिवपुरी काशी में काशीपुराधिपति विश्वेश्वर और उनके काशीवासी भक्तों के बीच का संबंध सेतु बस इसी परिभाषा के स्तंभों पर ढाला गया है। बाबा और भक्तों के बीच का रिश्ता भावनाओं के बिरवे की तरह मात्र नेह-नीर से सींच कर पोसा-पाला गया है। ब्रह्म और जीव मिलन के इस चरम बिंदु पर पहुंचकर विरागी मान्यताओं के बंधन ढीले पड़ जाते हैं। या यूं कहें कि विराग के सारे तत्व ही रागीय रंगों में ढल कर भावनाओं, संवेदनाओं के चटख इंद्रधनुष बनाते हैं। काशी के लोकमानस में बाबा की महत्ता के साथ विराज रहे महेश्वर अध्यात्म के इस चरम बिंदु के ही प्रतीक हैं। सूर-तुलसी की परंपराओं से निकले भक्ति के सहज मार्ग की सबसे सरल लीक हैं।
काशी की माटी में लोटपोट कर काशिकेय पद को प्राप्त बाबा का परम भक्त मात्र बेलपत्र और गंगजल चढ़ा कर अहर्निश उनकी बम-बम मनाता है। उनका दरस-परस ही नहीं करता वरन् उनसे बोलता-बतियाता और कभी-कभी धमकाता भी है। उसकी चाहना के अनुसार ही बाबा जागते-सोते, नहाते-धोते हैं। एक ओर वे भंग-धतूरा, मदार जैसे निषिद्ध आहार का प्रसाद पाते हैं दूसरी तरफ अन्नकूट जैसे आयोजनों के अवसर पर सहस्त्र विधि व्यंजनों का भोग भी लगाते हैं। बाबा की तरह ही अक्खड़ी-फक्कड़ी मिजाज और अंदाज वाले उनके ये अनुयायी हर शिवरात्रि पर चित्र-विचित्र ऊधमी बरातों के बीच धूम-धाम से बाबा के ब्याह का उत्सव रचाते हैं। इतना ही नहीं रंगभरी एकादशी को अबीर-गुलाल की बौछारों के बीच मइया गौरा के साथ उनका गौना भी कराते हैं।
दो-चार दिन बाद ही बाबा का औघड़ रूप सजाकर ये सभी महाश्मशान में चिता-भस्म की होली खेल आते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को अपने त्रिशूल पर धारण करने वाले महेश्वर अपने भक्तों की मनोकामनाओं के अनुरूप किसी भी रंग में ढल जाते हैं। कहीं कोई वर्जना नहीं जिसमें भी डालो उसी में शक्कर सा घुल जाते हैं। सच कहें तो महाकाल का यह अड़भंग रूप काशी में ही देखने को मिलता है। इसी औघड़ी चरित्र के चलते काशी का लौकिक व नैसर्गिक गुण-धर्म पलाश के चटख रंगों वाले फूलों की तरह खुल कर खिलता है।