Jagannath Temple Rathyatra in Varanasi 218 साल बाद भी बेजोड़ है काठ के देवरथ का ठाठ
भक्त वत्सल जगन्नाथ प्रभु काशी में अब भी अपने देवोपम रथ से नेह निभाए हुए हैैं। रथ की गढ़ाई के 218 वर्ष बीत चुके हैं।
वाराणसी, [कुमार अजय]। समय की गति-मति के साथ जनपथों -राजपथों पर फर्राटा भरने वाले वाहनों का रूप-स्वरुप भी बदल गया। रथशालाओं पर ताले चढ़ गए। दुनिया आ पहुंची ऑटो मोबाइल क्रांति के दौर में। भक्तों ने संभाल ली ऑडी, मर्सिडीज व बीएमडब्ल्यू जैसी लग्जरियस कारों की स्टेयरिंग मगर भक्त वत्सल जगन्नाथ प्रभु काशी में अब भी अपने देवोपम रथ से नेह निभाए हुए हैैं। रथ की गढ़ाई के 218 वर्ष बीत गए। नागर शैली के काष्ठ शिल्पियों द्वारा गढ़े गए अष्टकोणीय रथ के एंटीकवैल्यू का सिक्का जमाए हुए हैैं। लगभग 218 वर्षों में शायद यह पहली मरतबा है जब कोरोना महामारी के चलते काशी के लक्खा उत्सवों (लाखों की भागीदारी वाले) की शृंखला का पहला उत्सव प्राचीन जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह तक ही सीमित कर दिया गया है। फिर भी इस रंगोत्सव के आयोजन पर काशी की यह धरोहर आत्मगौरव का बोध कराएगी। आने वाले कल के नागरिकों यानी देश के किशोरों, युवाओं को उनके अतीत के वैभव से परिचित कराएगी।
शब्दचित्र आकार लेता है। सन् 1790 के उस काल खंड में जब काशी निवासी गुजराती वडनगरा नागर कुल के दो रइसों पं. बेनीराम व पं. विशंभरनाथ ने काशी केदार खंड के अस्सी क्षेत्र में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया। आगे चलकर पुरी के जगन्नाथ मंदिर की परंपरा का अनुसरण करते हुए वर्ष 1802 में काशी के पश्चिमी क्षेत्र के बाग-बगीचों से हरे-भरे चौराहे पर रथयात्रा उत्सव का भी शुभारंभ हुआ। नागरीय कला के उत्कर्ष के प्रतिमान रूप में शीशम की लकड़ी से गढ़ा गया यह दो मंजिला देवरथ भी उसी दौरान काशी नगरी के वैभवों की सुनहरी शृंखला की कड़ी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। पं. बेनीराम के वर्तमान वंशज दीपक शापुरी व आलोक शापुरी बताते हैैं कि वर्ष 1965 में उनके पिता व प्रसिद्ध समाजसेवी राव प्रहलाद दास शापुरी ने उन्हीं काष्ठ खंडो व कील कांटो से रथ का कलेवर जरूर बदलवाया। किंतु रथ के मूल स्वरूप से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। आइए इस बार रथयात्रा पर्व के उत्सवी रंगों का भाव स्मरण करते हुए डालते हैैं एक दृष्टि इस धरोहरी रथ के निर्माण की तकनीक व इसके आकर्षक फीचर्स पर।
रथ का मुख्य ढांचा
शीशम की लकड़ी से 20 फीट चौड़े व 18 फीट ऊंचे रथ का प्रदर्शित स्वरूप श्री यंत्राकार है। प्रथम तल पर पहियों के ऊपर बनाए गए 14 खंभे ढांचे को सहारा देते हैैं। द्वितीय तल पर गर्भ गृह को संभालते हैैं छह खंभे। जबकि दो खंभे आगे हैैं, जो तीन तरफ से आच्छादित हैैं। इन्हें लाल रंग से रंगा गया है।
रथछत्र की शोभा
अष्टकोणीय गर्भ गृह को कमानियों वाले छत्र से सजाया गया है। जिसका रंग अंदर से पीला व बाहर से लाल हैै। रथ के अन्य भाग नीले रंग के छत्र व नीले रंग के ही ध्वज से सज्जित हैं। एक और छत्र जो देवरथ को श्वेत रंग के पट व श्वेत ध्वज से सुशोभित करता है। यंत्राकार रथ में 12 तीलियों वाले 14 पहिए लगाए गए हैैं।
चमचमाता रजत शिखर
रथ का शिखर भी अष्टकोणीय है। लाल रंग के गुबंद के सामने का हिस्सा दो मगरमच्छों की अनुकृतियों से अलंकृत है। शिखर को रजत ध्वज से सज्जित किया जाता है। ध्वज के दोनों ओर श्री हनुमान जी विराजमान हैैं।
गर्भगृह का महत्व
आठ कोणों वाले गर्भगृह में विनायक व रिद्धि-सिद्धि विराजमान हैैं। नीचे दाहिने सूर्य देव व बाएं चंद्र देव वास्तु को पूर्णता देते हैैं। द्वार के ऊपर श्री कृष्ण प्रभु के नृत्य मुद्रा की छवि अंकित हैै। नीचे दाईं ओर मेरूयंत्र व बाईं ओर विष्णुयंत्र स्थापित है। रथ के अग्र भाग में सारथी की कांस्य प्रतिमा को स्थान मिलता है। कांस्य से ही गढ़े गए दो अश्व भी यात्रा के दौरान रथ में जोते जाते हैैं। दोनों ही अनुकृतियों को चांदी की पॉलिश से चमकाया गया है।