Green Vaccine से पौधों में विकसित हुआ स्वयं का प्रतिरक्षा तंत्र, पौधों की हर पीढ़ी रहेगी निरोगी
बीएचयू के वनस्पति विज्ञानी डा. प्रशांत सिंह ने ग्रीन वैक्सीन खोज कर बताया है कि पौधों में भी इंसानों की ही तरह रिसेप्टर होते हैं जो कि बाहरी आक्रमण से स्वयं को सावधान रखते हैं। बस जरूरत थी इनके भीतर छुपी आत्मशक्ति को जागृत करने की।
वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]। जिस तरह से मानव को हानिकारक वायरस और बैक्टीरिया के हमले से बचाने के लिए बचपन में ही टीका लगा दिया जाता है, ठीक उसी तरह से अब पौधे भी स्वयं का प्रतिरक्षा तंत्र विकसित कर खुद को और आने वाली पीढ़ी को निरोगी रखेंगे। बीएचयू के वनस्पति विज्ञानी डा. प्रशांत सिंह ने ग्रीन वैक्सीन खोज कर बताया है कि पौधों में भी इंसानों की ही तरह रिसेप्टर होते हैं, जो कि बाहरी आक्रमण से स्वयं को सावधान रखते हैं। बस जरूरत थी इनके भीतर छुपी आत्मशक्ति को जागृत करने की। बिना किसी पेस्टिसाइड और जेनेटिकली मोडिफाइड तकनीक के ही हम अपनी फसल को बेहतर ढंग से उपजा सकते हैं, साथ में उसकी उत्पादकता भी बढ़ा सकते हैं। यह शोध वनस्पति विज्ञान के सबसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल प्लांट सेल में प्रकाशित भी हो चुका है। अब इसे आगे बढ़ाते हुए वह ग्रीन स्टार्टअप शुरू कर रहे हैं, जिससे इस तकनीक का लाभ किसानों को मिले।
इस शोध के अनुसार बैक्टीरिया को मिट्टी में सिरींज द्वारा जब प्रवेश कराया जाता है, तो पौधों के अन्य भाग में एक अलार्म बज जाता है। इसके बाद प्लांट डिफेंस हार्मोन जसमोनिक एसिड और रिसेप्टर कोरोंटीन इंसेस्टिव एक सूचक की तरह पौधों के प्रत्येक कोशिकाओं को उस बैक्टीरिया के खिलाफ सक्रिय कर देता है। इसके अलावा ग्रीन वैक्सीन को किसी एक पत्ती में भी यदि प्रवेश करा दें तो भी इसका असर पौधे के हर भाग में पहुंच जाता है।
बाजरा, गेहूं व टमाटर पर रहा सफल
डा. प्रशांत ने बताया कि बाजरा, गेहूं और टमाटर पर इस ग्रीन वैक्सीनेशन का शोध पूरी तरह सफल रहा। इससे न तो अनाज के रंग और न ही गंध व स्वाद में कोई परिवर्तन हुआ। वर्तमान में इसके पौष्टिक गुणों में कितना इजाफा हुआ है, इसका आकलन चल रहा है।
वैक्सीन में है एपी जेनेटिक्स खूबी
डा. प्रशांत ने बताया कि इस वैक्सीन में एपी जेनेटिक्स की खूबी है। एक बार पौधे को वैक्सीन की डोज दे दी गई तो यह आगे आने वाली हर पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहेगी।
अब गांव-गांव तक पहुंचेगी यह तकनीक
डा. प्रशांत ने यह शोध कार्य ब्रिटेन के लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी में कुछ साथियों के साथ मिलकर 2017 से ही शुरू कर दिया था, जिसमें लगभग डेढ़ वर्ष बाद सफलता मिली। डा. सिंह ने बताया कि भारत में अब तक इस शोध की जानकारी लोगों को नहीं हो सकी है, इसलिए 2019 के अंत में जब वह बीएचयू में पदस्थ हुए तब से इस पर बकायदा का कक्षाएं और स्टार्टअप रन कराने की कवायद शुरू की है। डा. प्रशांत के अनुसार इस विधि को गरीब से गरीब किसान भी अपने उपयोग में ला सकता है। इन पौधों से तैयार बीज की बुवाई कर किसान फसल के उत्पादन चक्र को नियमित कर रोग मुक्त खेती कर पाएंगे। इसके लिए वह बीएचयू के बायो नेस्ट प्रोग्राम के तहत जल्द एक स्टार्टअप बनाएंगे और इस तकनीक को गांव-गांव तक पहुंचाएंगे।