गंगा अवतरण पर्व गंगा दशहरा : एकाकी ही सही करुणा गंगा दशहरा की बिसरी रीति निभाएंगी
मां जान्हवी के गीत गुनगुनाते हुए घर वापस लौट आएंगी। शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी करुणा का यह प्रयास भले ही एकाकी हो पर उन्हें पक्का भरोसा है कि ऐसी ही इक्का-दुक्का कोशिशें कल नहीं परसों ही सही एक जुट हुई तो किसी दिन जरूर रंग लाएंगी।
वाराणसी [कुमार अजय]। चेतगंज निवासिनी करुणा यादव को अपने विवाह के लगभग ढाई दशक बाद गंगा अवतरण पर्व गंगा दशहरा से जुड़े वर्षों पुराने लोकाचारों की याद आयी है। प्रतिष्ठित यादव परिवार की बहुरानी ने अपने गुजरे कैशोर्य को याद करते हुए मुद्दतोवाद अपने हाथों से फिर एक बार रच-रचकर गुड्डे-गुड़िया की जोड़ी सजाई है। भूली बिसरी एक रीति को पुनः जगाने के लिए, अंधानुकरण की चकाचौंध में गुम चुकी एक रस्म से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए गंगा दशहरा (रविवार की शाम) करुणा घर के बच्चों के साथ दशाश्वमेध घाट तक जाएंगी।
कभी काशी के जन-जन से जुड़े रहे सबसे आत्मीय लोक पर्व की सारी रस्में पुराते वे गुड्डे-गुड्डी की डोली का गंग विसर्जन करेंगी। मां जान्हवी के गीत गुनगुनाते हुए घर वापस लौट आएंगी। शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी करुणा का यह प्रयास भले ही एकाकी हो पर उन्हें पक्का भरोसा है कि ऐसी ही इक्का-दुक्का कोशिशें कल नहीं परसों ही सही एक जुट हुई तो किसी दिन जरूर रंग लाएंगी। बाजारवाद की भागाभागी में धूलधूसरित होते गए हमारे लोक जीवन को प्राण देने वाले कितने ही प्रतिमानों से हमें पुनः जोड़ेंगी। 'लाइक' और 'कमेंट' के चक्कर में मरती जा रही नैसर्गिक संवेदनाओं को यकीनन झकझोर जाएंगी।
ख्यात ज्योतिषाचार्य तथा काशी के लोक परंपराओं के जानकार पं. ऋषि द्विवेदी करुणा के इस यत्न को झील के ठहरे हुए पानी को पुनः स्पंदित करने की गरज से फेंकी गई उस कंकरी की तरह देखते हैं जो ज्वार भले ही न ला सके। किंतु यथा स्थिति को तोड़ती है। ठहर गयी जलराशि में बेचैनी पैदा करती है। नैराश्य को आंदोलित कर विचारों को आशावाद की तरफ मोड़ती है। आज भी गंगा दशहरा जैसे लोकपर्व की मुलभवनाओं को जिंदा रखने की खातिर सचेष्ट आचार्य श्रीकांत मिश्र पर्व का उत्सवी स्वरूप बचाए हुए हैं। वर्षों से इस त्योहार पर गंगा पूजन, दुग्धाभिषेक जैसे-जैसे सामूहिक अनुष्ठानों के निरंतर आवेदन का क्रम बनाए हुए हैं। कहते हैं आचार्य मिश्र काशी के लिए गंगा सिर्फ एक नदी नहीं उसका प्राण है। शिवनगरी के हर घर में गंगाजल पूरित घटों का प्रतिस्थापन महज एक रस्म नहीं मां के रूप में सुरसरि का मान है। विवाह हो या मुंडन, नकछेदन हर काशीवासी किसी भी मंगलकारज का पहला निमंत्रण गंगा के नाम ही पठाता है। हर मांगलिक कार्य में गंगा को ही अपने किए का साक्षी बनाता है। गंगा दशहरा जैसे पर्व इसी अटल विश्वास की जड़ों को और मजबूत बनाते हैं भांति-भांति के लोकाचारों से गंगा से हमारी आत्मीयता को और प्रगाढ़ करते जाते हैं।
जड़ों से जुड़े रहना है तो जतन जरूर करना है
वरिष्ठ काशीकेय अमिताभ भट्टाचार्य के अनुसार अभी कोई दो-तीन दशक तक गंगा अवतरण पर्व गंगा दशहरा काशी का महत्वपूर्ण लोक त्योहार हुआ करता था। गंगा स्नान, ध्यान, दान तथा पूजन-अर्चन के साथ ही लोकाचारों में गुड्डे-गुड्डी का ब्याह रचाना। युगल जोड़ी की डोर को गंगा में विसर्जित कर अखंड सौभाग्य कामना की अर्जी लगाना आदि जतन गंगा के प्रति हमारे समर्पण भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करते थे। इनका लोप दरअसल हमारी भावनाओं, संवेदनाओं व संस्कारों का लोप है। इन्हें जिंदा रखना है तो पीछे मुड़कर देखना ही होगा। जड़ों से जुड़ा रखने की खातिर थाती के रूप में इसे नई पीढ़ी को सरेखना ही होगा।