Dev Deepavali 2020 : देव पुरखों की विरासत को वाराणसी ने दिया अंतरराष्ट्रीय उत्सव का रूप
ज्योति पर्व पर दीया-बाती की जगमग तो पूरे देश में नजर आती हैं। समूचे देव मंडल के वास की मान्यता वाली नगरी काशी में कार्तिक पूर्णिमा पर इससे भी भव्य छटा निखर जाती है। देवाधिदेव महादेव की नगरी कार्तिक अमावस्या पर प्रभु श्रीराम के अवध आगमन का उत्सव मनाती है।
वाराणसी, जेएनएन। ज्योति पर्व पर दीया-बाती की जगमग तो पूरे देश में नजर आती हैं लेकिन समूचे देव मंडल के वास की मान्यता वाली नगरी काशी में कार्तिक पूर्णिमा पर इससे भी भव्य छटा निखर जाती है। देवाधिदेव महादेव की नगरी कार्तिक अमावस्या पर प्रभु श्रीराम के अवध आगमन का उत्सव मनाती है तो ठीक पखवारे भर बाद देव दीपावली सजाती है। उत्तर वाहिनी गंगा के घाटों पर सजे दीपों की कतार बाबा की काशी के गले में दपदप ज्योति के हार का अहसास कराती है।
वास्तव में उत्सवधर्मी शहर अपनी परंपरा और विरासत के प्रति सदा से श्रद्धावनत रहा है। इसके संरक्षण का धर्म निभाता है और कुछ ऐसा ही इस पर्व के साथ भी नजर आता है। त्रिपुर नामक दुर्दांत असुर पर भगवान शिव की विजय गाथा की पौराणिक कथा जानने वाली कुछ श्रद्धालु महिलाएं कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा घाटों तक आती थीं और श्रद्धा के कुछ दीप जलाकर लौट जाती थीं। काशी में 14वीं सदी से ही इस देव विजय के उपलक्ष्य में गंगा किनारे राजा- महाराजों द्वारा राजकीय स्तर पर भव्य दीपोत्सव के दृष्टांत तब इतिहास के पन्नों में ही कैद थे। ऐसे में कुछ संस्कृतिसेवी युवा ने अपनी कल्पनाओं को उड़ान दी। पौराणिक पृष्ठों को पलटा और मजबूत इरादों के साथ कभी काशी के गौरव रहे देवदीपावली उत्सव को एक बार फिर जमीन पर उतारने के काम में जुट गए। एक से दो, दो से चार और चार से आठ होते कई हाथ जुड़ते गए। जुगाड़ जतन से वर्ष 1986 में पंचगंगा सहित कुल छह घाट जब दीप मालाओं से जगमग हुए तो नगर में उल्लास की लहर महसूस की गई। अगले साल उत्सव को श्रीमठ पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य का प्रोत्साहन और संरक्षण मिला। कई घाटों पर तेल-दीया-बाती पंहुचाई गई और इस बार कुल 12 घाट गंगा का शृंगार करते आलोकित हो उठे। वर्ष 1988 तक उत्सव 24 घाटों तक विस्तार ले चुका था। वर्ष 1989-90 तक शहर की शांति व्यवस्था ठीक न होने से उत्सव प्रभावित जरूर हुआ लेकिन 1991 में दिव्य कार्तिक मास महोत्सव के अंर्तगत स्वामी रामनरेशाचार्य ने उत्सव को एक बार फिर खड़ा किया। वर्ष 1994 तक तो पं. किशोरी रमण दूबे (बाबू महाराज) तथा पं. सत्येंद्र नाथ मिश्र और उनके सहयोगियों ने उत्सव की भव्यता के ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए कि बनारस के घाटों का यह उत्सव देश की सीमाओं को लांघ कर अंर्तराष्ट्रीय फलक पर छा गया। इस श्रेय से उन उत्साही नौजवानों का हिस्सा बाद नहीं किया जा सकता जिन्होने फरुहे-बेलचों से घाट की मिट्टी हटाने से ले कर दीया जलाने तक का काम अपने कंधों पर ले कर अपने-अपने घाटों को नई पहचान दिलाई।
कथा देव दीपोत्सव की
धर्म सिंधु और कार्तिक महात्म्य ग्रंथों के अनुसार कभी त्रैलोक्य त्रिपुर नाम के एक दैत्य के अत्याचारों और अनाचारों से त्रस्त था। देवताओं की प्रार्थना पर महादेव ने कार्तिक पूर्णिमा पर उसका वध कर लोगों को अभय किया। तब से ही देवताओं सहित तीनों लोकों में महादेव के इस विजय पर्व पर दीपोत्सव की परंपरा शुरू हुई। इसमें देवों की बराबर की सहभागिता देखते हुए इसे देव दीपावली का नाम दिया गया। शिव की नगरी होने के नाते काशी का इस उत्सव से गहरा लगाव रहा।
काशी का पांचवां लक्खा मेला
काशी में दो दशक पहले तक चार ही लक्खा (एक लाख लोगों की भागीदारी) मेले हुआ करते थे। नाटीइमली का भरत मिलाप, चेतगंज की नक्कटैया, तुलसीघाट की नागनथैया और रथयात्रा मेला लेकिन हाल के वर्षों में इसी श्रेणी में देवदीपावली ने भी जगह बना ली। अब यह काशी का पांचवां लक्खा मेला है।
राष्ट्रीयता का संदेश
बनारस की देवदीपावली की इस मायने में भी विशिष्ट है कि इसके साथ पुरखों-शहीदोंके प्रति श्रद्धार्पण का व्यापक भाव के साथ राष्ट्रीयता का संदेश भी जुड़ा है। पर्व विशेष पर सैन्य अधिकारियों के हाथों प्रज्वलित आकाशदीप गगनार्पित होते हैैं। सेना के जवानों की सशस्त्र टुकड़ी की गरिमापूर्ण अनुशासन-व्यवहारों के साथ उपस्थिति आयोजन में चार चांद लगाती है। इसके साथ गंगा के घाटों पर कुछ ही क्षणों में लाख से भी अधिक दीप प्रकाश-पुलक हो जाग उठते हैं। यह दृश्य अलौकिक अनुभूति भरने वाला होता है। इसे देखने दुनिया के कोने-कोने से लोग आते हैैं।
हजारा से आरंभ
काशी में देवदीपावली आरंभ के साथ धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर का नाम जुड़ा है। कहा जाता है, उनके ही बनाए हजारा दीपस्तंभ (एक हजार एक दीपों का स्तंभ) से पंचगंगाघाट पर देव दीपावली का प्रारंभ हुआ। इसे व्यापक बनाने में तत्कालीन काशीनरेश महाराज विभूतिनारायण सिंह ने ऐतिहासिक योगदान किया। बाद में तमाम श्रद्धालु आगे आते और महत्वपूर्ण भूमिका निभाते चले गए। पुरखों-शहीदों की अभ्यर्थना की अवधारणा ने इसे जन-जन के हृदय से जोड़ दिया।