माइक्रो आरएनए पर नियंत्रण कर जापानी इंसेफ्लाइटिस से पा सकते हैं निजात, वायरोलाजिस्ट प्रो. सुनीत सिंह की टीम का शोध
जापानी इंसेफ्लाइटिस के वायरस के विरूद्ध मस्तिष्क की रक्षा करने वाली प्रोटीन जीन पेली-1 और नीचे मौजूद समस्त जीन का संश्लेषण बेहद कम हो जाता है। माइक्रो आरएनए 155 का एक निश्चित बिंदु के बाद बढ़ता स्तर पेली-1 और नीचे मौजूद सभी जीन के रास्तों को अवरूद्ध कर देता है।
वाराणसी [हिमांशु अस्थाना]। दुनिया में पहली बार मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारी जापानी इंसेफ्लाइटिस के पीछे माइक्रो आरएनए -155 की गतिविधियों का पता चला है। ये माइक्रो आरएनए मस्तिष्क के माइक्रोग्लियल कोशिकाओं में मौजूद होती हैं, जो कि बीमारी के खिलाफ लड़ने में सहायक प्रोटीन का संश्लेषण नहीं होने देतीं। यह सबसे बेहतर अवसर होता है, जब जापानी इंसेफ्लाइटिस का वायरस मस्तिष्क में अपना संक्रमण तेजी से फैलाने में सफल हो जाता है। आइएमएस-बीएचयू स्थित मालीक्यूलर बायोलाजी के विभागाध्यक्ष प्रो. सुनीत कुमार सिंह के निर्देशन में हुआ यह शोध प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल बीबीए-जीन रेगुलेटरी मैकेनिज्म के सितंबर के अंक में प्रकाशित हो चुका है। इस अध्ययन से पता चलता है कि यदि माइक्रो आरएनए -155 के बढ़ते स्तर को एक सीमा के बाद रोक दें, तो हम जापानी इंसेफेलाइटिस के घातक स्वरूप से लोगों को बच सकेंगे।
दरअसल, माइक्रो आरएनए हमारे प्रतिरक्षा वाली जीन को रेगुलेट करने वाला एक मालीक्यूलर स्विच है। प्रो. सुनीत सिंह के अनुसार जब वायरस का आक्रमण होता है, तब मस्तिष्क के माइक्रोग्लियल कोशिकाओं में मिलने वाले इस आरएनए का संश्लेषण बढ़ जाता है। जापानी इंसेफ्लाइटिस के वायरस के विरूद्ध मस्तिष्क की रक्षा करने वाली प्रोटीन जीन पेली-1 और नीचे मौजूद समस्त जीन का संश्लेषण बेहद कम हो जाता है। यानि कि माइक्रो आरएनए 155 का एक निश्चित बिंदु के बाद बढ़ता स्तर पेली-1 और नीचे मौजूद सभी जीन के रास्तों को अवरूद्ध कर देता है। प्रो. सिंह ने बताया कि शोध के दौरान जब माइक्रो आरएनए के स्तर को घटाया गया, तो पेली-1 बढ़ने लगा और उसके बाद सभी प्रोटीन वायरस के खिलाफ मस्तिष्क की रक्षात्मक दीवार की तरह काम करने लगीं। प्रो. सिंह ने बताया कि इस आरएनए के स्तर को बढ़ने से रोक दें, तो जाहिर है, व्यक्ति और खासकर बच्चों को जो इस रोग से ज्यादा प्रभावित होते हैं, उन्हें इसके बड़े दुष्परिणाम से बचाया जा सकेगा। उन्होंने बताया कि इस बीमारी की वैक्सीन तो है, लेकिन जब तक यह मास स्तर पर अभियान नहीं चलाया जाएगा, तब तक कोई बड़ा लाभ नहीं होने वाला। प्रो. सुनीत के साथ इस शोध में विभाग की ही युवा विज्ञानी मेघना रस्तोगी शामिल थी।