Barawafat 2021 : वाराणसी में हुजूर की आमद मरहबा के साथ जय हिंद के नारे भी हुए बुलंद,
मुबारकों की जोशीली सदा के साथ अलग-अलग टोले-मुहल्लों को गुंजाने लगे थे। हर तरफ उमंगों का समंदर। दोपहिया-चौपहिया वाहनों के फर्राटों का उल्लासी मंजर। सुबह के सात बजने तक अलहदा दिशाओं से शहर में निकल पड़े थे छोटे-बड़े जुलूस।
वाराणसी, कुमार अजय। नकारात्मकता की ताप लहर से जूझते रेगिस्तान में भटक रहे किसी राही को छूकर निकली सकारात्मकता की एक हल्की सी बयार भी उसे पल भर के लिए ही सही ताजा दम कर जाती है। 'बुझती हुए उसकी उम्मीदों को नखलीस्तान अब और दूर नहीं की पूर्व उम्मीदी से जोड़ जाती है। ठीक वैसी ही पूरसुकून ताजगी से खिली-खिली रही पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब की यौमे पैदाइश की खुशगवारी में' सराबोर शहर बनारस की मंगलवारी सुबह। बयान है कि नबी की पैदाइश का मुबारक वक्त सुबह पांच बजे का था। लिहाजा पजिर की नमाज अदा करने के बाद से ही मुस्लिम बहुल मुहल्लों में नए कपड़ों में सजे व तुर्की साफों में डटे बुढ़े, बच्चे, नौजवान हाथों में इस्लामी परचम लहराते जुलूसे मुहम्मदी के सफे (लाइन) लगाने लगे थे। मुबारकों की जोशीली सदा के साथ अलग-अलग टोले-मुहल्लों को गुंजाने लगे थे। हर तरफ उमंगों का समंदर। दोपहिया-चौपहिया वाहनों के फर्राटों का उल्लासी मंजर। सुबह के सात बजने तक अलहदा दिशाओं से शहर में निकल पड़े थे छोटे-बड़े जुलूस।
काबिले गौर मसला
काबिले गौर जिक्र यह कि मजहबी परचमों के इस फरफराते-सरसराते कारवां की अगुवाई कर रहे थे आकाश चूमते कई-कई मीटर लंबे कौमी तिरंगे। हुजूर की आमद मरहबा...सरकार की आमद मरहबा के साथ जय हिंद की गगनभेदी नारों की युगलबंदी जुलूस में शामिल लोगों के साथ ही हर बनारसी के मन में वतनपरस्ती की तरंगे उठा रही थी, सभी के मन को हुलसा रही थीं।
गुड़िया सी सजी-धजी अपनी बच्ची के हाथों में गुब्बारा थमाए, जुलूस से हासिल खुशियों का गुलदस्ता सजाए घर लौट रहे मदनपुरा निवासी जनाब नईम अख्तर साहब मजहब के साथ मुल्कपरस्ती को जोड़ने वाले इस प्रयोग को दिल के जज्बातों का इजहार करार देते हुए कहते हैं-'यकीनन दीन हमारी जान है, ईमान है पर दुनियावी मसायल की कसौटी पर आज हिंदुस्तान ही हमारी आन है। हमारे बाप-दादाओं से लगायत आने वाली नस्लों की इस्मे शरीफ है, पहचान है'। खुद जोश में झूमते और लहराते तिरंगे को चूमते मदनपुरा के ही नौजवान जावेद अफरीदी का कहना है सिर्फ बारावफात ही क्यों हम तो कौमी त्योहार भी दिलो-जान से रवायती रस्मों की तरह मनाते रहे हैं। यह बात और इसके बाद भी न जाने किस जुर्म में हम हमेशा से शक-शुबहे की नजरों से देखे जाते रहे हैं।
उनके इस मलाल को लेकर भावों से भींग गए उनके पड़ोसी सुनील सिंह उनसे गले से लग जाते हैं। इस देखे-अनदेखे दृश्य से पल भर में ही कई पूर्वाग्रह एक झटके में टूट जाते हैं। भरोसे के बंधनों की गांठ और कसती है। ...संदेह के धूसल घेरे पीछे बहुत पीछे छूटते चले जाते हैं।