Birth Anniversary : ठुमरी साम्राज्ञी गिरिजा देवी की जयंती पर इस बार कोरोना संकट के कारण नहीं सजेगी सुरों की महफिल
कोई चार साल हुए होंगे जब बनारस संगीत घराने के आसमान से एक सितारा टूटा फानी दुनिया से साथ छूटा और परलोक में जा बसा। नाम गिरिजा देवी और पहचान ठुमरी जिसे उन्होंने खुद ही नई पहचान दी। इसे सजाया-संवारा और विशाल शिष्य श्रृंखला को भी इसका ही पाठ पढ़ाया।
वाराणसी, जेएनएन। Birth Anniversary: यही कोई चार साल हुए होंगे जब बनारस संगीत घराने के आसमान से एक सितारा टूटा, फानी दुनिया से साथ छूटा और परलोक में जा बसा। नाम गिरिजा देवी (8 मई 1929 - 24 अक्टूबर 2017) और पहचान ठुमरी जिसे उन्होंने खुद ही नई पहचान दी। इसे सजाया-संवारा और अपनी विशाल शिष्य श्रृंखला को भी इसका ही पाठ पढ़ाया। वह ओहदा पाया, जिसमें कलाकार कला से भी बड़ा हो जाता है। कद एेसा जिसके आगे मंच भी हाथ जोड़े खड़ा हो जाता है। दरअसल, यह पूंजी उन्होंने अपनी सरलता-सहजता, जीवटता, साधना व समर्पण के साथ ही अपनी माटी के प्रति प्रेम से अर्जित की।
इसे इस तरह समझ सकते हैं कि दुनिया छोड़ने से पहले 2017 में 24 अप्रैल को वे जब अपने नाटी इमली स्थित घर आईं तो सुर गंगा नाम से आयोजित सांगीतिक आयोजन में जाना हुआ जहां फिल्म जगत की ख्यात पार्श्वगायिका आशो भोसले भी मौजूद थीं। शायद बनारस में यह पहली बार ही रहा होगा जब संगीत जगत की दो सुप्रसिद्ध सुर साधिका एक साथ मंचासीन हुईं। आशा भोसले ने पैर छूकर गिरिजा देवी का आशीर्वाद लिया और तमाम फिल्मों में अपनी गीतों से जान भरने वाला कंठ सुर लगाने में असहज हो गया। उन्होंने कहा, आरडी बर्मन जी भी उन्हें गिरिजा देवी के गीत सुनने के लिए कहा करते थे। उन ठुमरी साम्राज्ञी की जयंती की पूर्व संध्या पर शिष्यों के हृदय की कोटरों में सहेजी पड़ी यादें कुलबुलाने लगीं। बीते दिनों की यादें सुरों के रूप में बाहर आने के लिए छटपटाने लगीं। उनके शिष्यों में सबसे कनिष्ठ और इस नाते भी प्रिय राहुल-रोहित ने घर की एक कोठरी में बैठकर उन्हें याद तो कर लिया लेकिन जयंती (आठ मई) पर कोरोना संकट के कारण कोई आयोजन न कर पाने की विवशता को पलकों में जज्ब कर लिया।
गिरिजा देवी का जन्म 1929 में जमींदार परिवार में हुआ जिसमें गाना-बजाना तो दूर ऐसा सोचना भी मुश्किल था, लेकिन बेटी की लगन को देखते हुए उनके पिता रामदेव राय ने पांच वर्ष की उम्र में ही संगीत शिक्षा का इंतजाम किया। आरंभ में चार साल की अवस्था में गुरु पं. सरयू प्रसाद मिश्र फिर पं. श्रीचंद्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों में दक्ष किया। ख्याल, ठुमरी सहित तमाम शास्त्रीय रूप और तप की तरह अधिक कठिन व तकनीकी रूप से जटिल शैलियों का ज्ञान दिया। इस बीच उन्होंने फिल्म ''याद रहे'' में अभिनय भी किया। खास यह कि उनकी कला यात्रा में संगीत व काव्य प्रेमी पति मधुसूदन जैन का बड़ा सहयोग मिला। इस हौसले के बूते ही उन्होंने वर्ष 1949 में उन्होंने इलाहाबाद आकाशवाणी पर गायकी का प्रदर्शन तो किया ही 1951 में बिहार के आरा में आयोजित संगीत
सम्मेलन में सुर लगा कर विभोर कर दिया। इसके बाद अनवरत संगीत यात्र शुरू हुई जो अंत तक जारी रही। इसमें पिता व पति से मिले मान का उन्हें सदा ध्यान रहा। सरकार ने उनकी गायिकी व कला के प्रति समर्पण को देखते हुए 1972 में पद्मश्री, 1989 में पद्मभूषण व 2016 में पद्मविभूषण दिया। इसके साथ न जाने कितने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले, लेकिन न तो अपनी सिद्धहस्तता व न ही इन अलंकरणों का उन्होंने कभी गुमान किया। बनारस हो या कहीं और हर ठौर पर उनके भीतर रचा बसा बनारस दिख जाता था। जो भी सामने आता था, उनका मुरीद होकर जाता था। बनारस में उनके बैठक खाने की आलमारी में सहेज कर रखी गई गुुड़ियों व पुतलियों की कतार उनमें संरिक्षत बालमन की गवाही दे जाती थी। उनकी बोलचाल व मुस्कान में भी यही बालसुलभता नजर आती थी। ठेठ बनारसी में आवा बचवा या भइया संबोधन के साथ खुद आवभगत में लग जाती थीं। अंतिम बार भी वे अस्वस्थता के बाद भी भरत मिलाप देखने को लोभ संवरण न कर पाईँ और भरत मिलाप मैदान के पास स्थित एक भवन से प्रभु श्रीराम को प्रणाम किया।