चंदौली के ऐलही में 350 साल पुराना ताजिया, लखनऊ से इमामबाड़े में लाने में 50 मजदूरों को लगे थे दो माह

ऐलही गांव के लोगों ने 350 साल पुरानी विरासत सहेजकर रखी है। 1670 में लखनऊ से लाया गया विशेष ताजिया आज भी गांव के इमामबाड़े में सुरक्षित है। दावा किया जा रहा इस तरह का ताजिया या तो रामपुर जिले में है या चंदौली के ऐलही में।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Sun, 15 Aug 2021 07:10 PM (IST) Updated:Sun, 15 Aug 2021 07:10 PM (IST)
चंदौली के ऐलही में 350 साल पुराना ताजिया, लखनऊ से इमामबाड़े में लाने में 50 मजदूरों को लगे थे दो माह
चंदौली के ऐलही गांव में रखा 350 साल पुराना ताजिया। जागरण। (फाइल फोटो)

जागरण संवाददाता, चंदौली। ऐलही गांव के लोगों ने 350 साल पुरानी विरासत सहेजकर रखी है। 1670 में लखनऊ से लाया गया विशेष ताजिया आज भी गांव के इमामबाड़े में सुरक्षित है। दावा किया जा रहा इस तरह का ताजिया या तो रामपुर जिले में है या चंदौली के ऐलही में। उस समय पांच हजार रुपये में लखनऊ के कारीगर से ताजिया खरीदा था। इसको बांस-बल्ली के सहारे पैदल लेकर आने में 50 मजदूरों को दो माह का समय लग गया था। आबनूस की लकड़ी, शीशा और विशेष तरह के कागज से बना विशेष ताजिया आज भी मुस्लिम समुदाय के लोगों की आस्था का प्रतीक है। ग्रामीण बताते हैं कि 10 साल पहले ताजिया की मरम्मत कराई गई थी। इसमें आठ माह का समय और 1.50 लाख रुपये खर्च हो गए थे। 19 तारीख को मोहर्रम है। इसे साफ-सफाई कर दुरुस्त किया जा रहा है।

गांव के अनवर अब्बास बताते हैं कि उनके पूर्वज जमीदार अहमद मीर लखनऊ में नौकरी करते थे। उन्होंने वहां इस तरह का ताजिया देखा था, तभी उनके मन में ऐसा ही ताजिया बनवाकर गांव ले जाने की इच्छा जगी थी। उस दौरान ताजिया बनवाने में चार साल लग गया और पांच हजार रुपये खर्च हुए थे। इस तरह के ताजिया उत्तर प्रदेश में मात्र दो स्थान पर हैं। एक ताजिया रामपुर जिले में हैं। पांच मंजिला ताजिया को लखनऊ से गांव ले आने में दो माह लग गए। 50 से अधिक मजदूर बांस-बल्ली के सहारे किसी तरह ताजिया को उठाकर ऐलही गांव पहुंचे। गांव पहुंचने के बाद पांच मंजिला ताजिया को अंदर ले जाना मुश्किल हो गया। नीचे की एक मंजिल को निकालना पड़ा। फिलहाल चार मंजिला ताजिया गांव के इमामबाड़े में रखा हुआ है। पिछले 50 साल से इमामबाड़े में ताजिया की देखरेख कर रहे जफरुल हसन बताते हैं कि हम सभी के लिए यह अनमोल है। मोहर्रम के दिन ताजिया को सजाकर पूरे गांव घुमाने के बाद कर्बला ले जाया जाता है। ताजिया पर चढ़े गजरे व फूलों को उताकर उसके ठंडा होने के बाद पुन: इमामबाड़े में रख दिया जाता है।

नट बोल्ड पर हैं सारी मंजिलें

मोहर्रम की सप्तमी पर ताजिया को बाहर निकालकर परिसर में हैं। यहा नवमी को उठता है, दसवीं को कर्बला पहुंचता है। चार मंजिला यह ताजिया नटबोल्ट पर कसा है। मोहर्रम के दिन कर्बला में ताजिया ठंडा होने के बाद इसे इमामबाड़े लाकर सारी एक-एक कर सारी मंजिलें खोली जाती हैं। बकायदा पूरे कमरे में दीमक व कीट पतंगे रोधी दवा का छिड़काव रख पांच तख्तों पर रखा जाता है। हर रोज इसकी देखरेख को एक व्यक्ति तैनात किया गया है। उसे उसका मेहनताना मिलता है।

धोने पर भी नहीं खराब होता है कागज

जफरुल हसन बताते हैं कि ताजिया में आबनूस की लकड़ी के साथ ही इस तरह का कागज लगा है कि पानी से धोने पर भी खराब नहीं होता है। मुस्लिम के साथ हिंदू समाज के लोगों में प्राचीन ताजिया को लेकर जिज्ञासा रहती है। इसको देखने के लिए लोगों का तांता लगा रहता है। अपने आस्था के प्रतीक इस विशेष ताजिए को आज भी लोग सहेजकर रखे हुए हैं।

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