जल संरक्षण में फिर बजेगा डंका, बनेंगे पांच हजार टंका

कैसी होती है टांके की बनावट टांका एक भूमिगत पक्का कुण्ड है जो सामान्यतया गोल होता है। जहां भूमि कठोर होती है वहां इस मिट्टी को टांके के बाहर चारों वृत्ताकार बाहर से अन्दर की ओर सूखा ढालदार प्लेटफार्म बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस ढालदार सतह प्लेटफार्म को कैचमेन्ट एरिया (या टांके का जलग्रहण-कैचमेंट क्षेत्र जहां से वर्षा-जल एकत्रित किया जाता है) कहते हैं। कैचमेंट एरिया में गिरने वाले पानी का बहाव टांके की तरफ किया जाता है तथा टांके में एक से लेकर तीन तक प्रवेश द्वार (इनलेट) बनाए जाते हैं।

By JagranEdited By: Publish:Sun, 26 May 2019 12:41 PM (IST) Updated:Sun, 26 May 2019 12:41 PM (IST)
जल संरक्षण में फिर बजेगा डंका, बनेंगे पांच हजार टंका
जल संरक्षण में फिर बजेगा डंका, बनेंगे पांच हजार टंका

सोनभद्र : जिले में हर वर्ष पेयजल के लिए मचने वाले हाहाकार पर रोक लगने वाली है। जिला प्रशासन ने इसके लिए व्यापक रूपरेखा तैयार कर ली है। चुनावी आचार संहिता के कारण इस महा अभियान को धरातल पर नहीं लाया जा सका था लेकिन अब यह संभव होगा। विदित हो कि पिछले वर्ष दैनिक जागरण व जिला प्रशासन ने अभियान चलाकर संयुक्त रूप से जल संग्रह अभियान के तहत 1001 तालाब व पोखरों का निर्माण कराया था। जिसका लाभ इस वर्ष गर्मी में व्यापक तौर पर देखने को मिला। इसी से उत्साहित प्रशासनिक अमला एक बार फिर से दैनिक जागरण के साथ नए अभियान का शुभारंभ करने जा रहा है।

तमाम प्रयोगों के बाद भी जब जिले के दूरस्त ग्रामीण इलाकों में जल समस्या को दूर नहीं किया जा सका तो इसके स्थायी समाधान के लिए जिलाधिकारी अंकित कुमार अग्रवाल ने दूसरे पैटर्न पर काम करना शुरू कर दिया। जिसके क्रम में उन्होंने सबसे पहले राजस्थान में पानी की समस्या को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों पर अध्ययन किया। इस दौरान इन्होंने पाया कि राजस्थान के तमाम जिलों में जल संग्रह के लिए बारिश के पानी का उपयोग किया जाता है। जिसके लिए वहां पर गांव-गांव टांका उर्फ टंका (ऐसी पानी की टंकी जो जमीन के अंदर होती है) बनाया गया है। हर टंका में पानी भरने के लिए गांव के तमाम स्त्रोतों को वहां पर लाकर मिलाया गया है, ताकि बारिश का एक-एक बूंद पानी उसमें जा सके। इस कारगर विधि को देखने को बाद जिलाधिकारी ने इसे जनपद में लागू करने का निर्णय लिया। प्रथम चरण में जिले के जल संकट से जूझ रहे तमाम ग्राम पंचायतों में पांच हजार टांका बनाने का निर्णय लिया गया है।

क्या है टांका और कहां हुआ शुरू

राजस्थान में थार मरुस्थलीय क्षेत्र पानी की कमी वाला क्षेत्र है। कम वर्षा व भूमिगत जल प्रदूषित होने के कारण यहां के निवासियों ने प्राचीनकाल से ही जल संग्रहण के ऐसे तरीके विकसित किए, जिससे मनुष्यों तथा पशुओं की पानी की आवश्यकताएं पूरी की जा सके। इनमें से एक प्रमुख तरीका है टांका। राजस्थान में टांकों का इतिहास बहुत पुराना है। वर्ष 1895-96 के राजस्थान में पड़े महा-अकाल में ऐसे टांके बड़े स्तर पर बनवाए गए। सबसे बड़ा टांका करीब 350 वर्ष पहले जयपुर के जयगढ़ किले में बनवाया गया था। इसकी क्षमता साठ लाख गैलन (लगभग तीन करोड़ लीटर) पानी की थी। जहां अधिकांश स्थानों पर भूमिगत जल खारा है तथा भूजल अधिक गहराई पर है, ऐसे क्षेत्रों में टांका, स्वच्छ तथा मीठा पेयजल पाने का सुविधाजनक तरीका है। मरुस्थल में रहने वाले परिवार जिन्हें पेयजल दूर से लाना पड़ता है, उनके लिये पानी का टांका एक अनिवार्य आवश्यकता है। खेतो में ऐसे टांकें बनाए गए हैं। कैसी होती है टांके की बनावट

टांका एक भूमिगत पक्का कुंड है जो सामान्यतया गोल होता है। जहां भूमि कठोर होती है वहां इस मिट्टी को टांके के बाहर चारों वृत्ताकार बाहर से अंदर की ओर सूखा ढालदार प्लेटफार्म बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस ढालदार सतह प्लेटफार्म को कैचमेंट एरिया (टांके का जलग्रहण-कैचमेंट क्षेत्र, जहां से वर्षा-जल एकत्रित किया जाता है) कहते हैं। कैचमेंट एरिया में गिरने वाले पानी का बहाव टांके की तरफ किया जाता है तथा टांके में एक से लेकर तीन तक प्रवेश द्वार (इनलेट) बनाए जाते हैं, जिनके द्वारा पानी टांके के अंदर जाता है।

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