मालिकों ने दर्द दिया तो अपनों ने लगाया मरहम
गांव की पुलिया पर बैठा पुरवइया हवा का आनंद लेता मझवां ब्लाक का संजय पाल यह कहते नहीं चूकता कि महानगरों में अपनापन नहीं है। वह मुंबई के पनवेल में एक ज्वैलरी दुकान पर सुरक्षाकर्मी का काम करता था। मालिक उसे अपने बेटे की तरह मानता था लेकिन लॉकडाउन ने संजय को मालिक का वह रुप दिखा दिया जिसे वह जिदगी भर नहीं जान पाता। ऐसे अकेले संजय ही नहीं बल्कि देश भर के शहरों से लौटे तीस हजार हैं जो अब गांव की शरण में हैं।
जागरण संवाददाता, मीरजापुर : गांव की पुलिया पर बैठा पुरवइया हवा का आनंद लेता मझवां ब्लाक का संजय पाल यह कहते नहीं चूकता कि महानगरों में अपनापन नहीं है। वह मुंबई के पनवेल में एक ज्वैलरी दुकान पर सुरक्षाकर्मी का काम करता था। मालिक उसे अपने बेटे की तरह मानता था लेकिन लॉकडाउन ने संजय को मालिक का वह रुप दिखा दिया जिसे वह जिदगी भर नहीं जान पाता। ऐसे अकेले संजय ही नहीं बल्कि देश भर के शहरों से लौटे तीस हजार हैं जो अब गांव की शरण में हैं।
मुंबई में ही पांच सितारा होटल में कार्यरत बृजेश हों या लौह अयस्क की फैक्ट्री में काम करने वाले देवेंद्र, दिल्ली में आटो चलाकर परिवार पालने वाले बलवंत हों या अहमदाबाद में शिक्षण कार्य करने वाले सुमन सिंह, हर सख्श ने शहरों की बेरुखी को महसूस किया है। कटरा कोतवाली क्षेत्र में रहने वाले बृजेश ने बताते हैं पहले 21 दिन तक तो मालिक ने तनख्वाह दी और भरोसा भी देते रहे लेकिन दूसरा लॉकडाउन शुरू होने के बाद वे बार-बार यही कहते कि अब घर चले जाओ। अपने पास जो पैसा था, वह उपयोग करने लगे तो 15 दिन में ही एकाउंट खाली हो गया। फिर घर से पैसे मंगाने शुरू किए और किसी तरह ट्रक से वापस आए। सुमन तो अपनी दुर्दशा बताते-बताते रोने लगती हैं। उन्होंने कहा कि मकान मालिक ने लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही धमकी देना शुरू कर दिया और जब उसे पता चला कि वेतन भी नहीं मिला है तो उसने सामान बाहर फेंक दिया। उस कठिन समय को किसी तरह से पार किया और कुछ लोगों के साथ आटो से घर आईं। इसी तरह कोई आटो से कोई बस से, कोई ट्रक से तो कोई ट्रेन से जूझता, लड़ता अपने-अपने गांव पहुंचा। बलवंत कहते हैं कि यहां भले ही कुछ न हो लेकिन मानसिक तनाव नहीं है। सभी मदद कर रहे हैं, साथ भरोसा भी देते हैं।
सरकारी मदद बनी संजीवनी
सूरत से आए नंदा ने बताया कि घर पर सभी के राशन कार्ड बने हैं, राशन मिल रहा है और पर्याप्त है। नए राशन कार्ड भी बन रहे हैं इसलिए अब यह चिता नहीं कि हम क्या खाएंगे। किसान राजबली पटेल ने बताया कि सरकारी पेंशन के दम पर ही रोजमर्रा की जरुरतें पूरी हो रही हैं। किसान नागेंद्र ने बताया कि पीएम मानधन की राशि लॉकडाउन के दौरान खाते में आई तो महीने भर की सामान्य जरुरतें पूरी हुईं। महिला श्रमिक फूलवती यादव ने बताया कि जनधन खाते में मिले पांच सौ रुपए बहुत मददगार साबित हुए। हर महीने मिली इस रकम से कुछ जरुरत तो पूरी हुई ही, किसी के सामने हाथ फैलाने की जरुरत नहीं पड़ी।
काम मिलने की समस्या सामने
सरकार भले ही यह दावा करती है कि मनरेगा के तहत प्रवासियों को रोजगार देंगे लेकिन ज्यादातर प्रवासी मिट्टी खुदाई जैसा काम नहीं कर पाएंगे। साफ्टवेयर इंजीनियर मनीष सिंह ने कहा कि हमारी तरह हजारों लोग अच्छी नौकरी कर रहे थे। उसी तरह से हमारे खर्च भी रहे लेकिन अब सब कुछ बदल चुका है। उन्होंने कहा कि गांव में शहर जैसा माहौल, रोजगार के अवसर नहीं है इसलिए हमें फिर से लौटना पड़ेगा। आइटी कंपनी में कार्यरत जुगल किशोर भी यही बात कहते हैं कि यहां रोजगार ही नहीं है तो हम कितने दिन ऐसे बैठेंगे। एक न एक दिन तो लौटकर जाना होगा। लेकिन अब सिर्फ शहरों के भरोस नहीं रहेंगे।