यत्‍‌न करो कुछ ऐसा कि बस अंबार हरियाली का दिखाई दे

चेष्टा वायु खमाकाशमूष्माग्नि सलिलं द्रव। पृथिवी चात्र सङ्कात शरीरं पा@भौतिकम्।। म

By JagranEdited By: Publish:Thu, 21 Oct 2021 08:08 AM (IST) Updated:Thu, 21 Oct 2021 08:08 AM (IST)
यत्‍‌न करो कुछ ऐसा कि बस अंबार हरियाली का दिखाई दे
यत्‍‌न करो कुछ ऐसा कि बस अंबार हरियाली का दिखाई दे

मेरठ, जेएनएन। चेष्टा वायु: खमाकाशमूष्माग्नि: सलिलं द्रव:।

पृथिवी चात्र सङ्कात: शरीरं पा@भौतिकम्।।

महर्षि भृगु कहते हैं कि शरीर में चेष्टा अर्थात गतिशीलता वायु का रूप है, खोखलापन आकाश का रूप है, गर्मी अग्नि का रूप है, तरल पदार्थ सलिल का रूप है और ठोसपन पृथ्वी का रूप है। इस प्रकार शरीर पांच महाभूतों (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों) से बना है। इसी प्रकार 'पर्यावरण' में 'परि' का आशय चारों ओर तथा आवरण का आशय परिवेश है। दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यावरण अर्थात वनस्पतियों, प्राणियों, और मानव जाति सहित सभी सजीवों और उनके साथ संबंधित भौतिक परिसर को पर्यावरण कहतें हैं। वास्तव में पर्यावरण में वायु, जल, भूमि पेड़-पौधे, जीव-जंतु, मानव और उसकी विविध गतिविधियों के परिणाम आदि सभी का समावेश होता हैं।

प्रकृति सर्वोत्तम और शक्तिशाली है। इसके साथ मित्रता का रिश्ता रखकर ही मानव जाति संतुलित जीवन जी सकती है। लेकिन हमारी मिथ्यावादी सोच और हठधर्मिता ने प्रकृति को अपनी दासी बनाने की जब-जब निरर्थक और नाकामयाब कोशिश की तब-तब मुंह की खायी और फलस्वरूप महाप्रलय का सामना करना पड़ा। प्रकृति के विशालकाय रूप के समक्ष मानव का कद बौना था और बौना है-यह हमें समझना होगा। पर्यावरण के इशारों पर चलने में ही मानव की बुद्धिमत्ता है। तडागकृत वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विज:।

एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिन:।। महाभारत के अध्याय में वर्णित इस श्लोक का अर्थ है-तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने और यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है। अर्थात मानव जीवन के निर्माण में (जल, वायु, आकाश, पृथ्वी और अग्नि) जब तक इन पाच तत्व का समन्वय, संतुलन और संगठन निर्धारित परिमाण में संयोजित रहता है तो हम कहते, है कि पर्यावरण सही है और जब इनके मध्य का तालमेल बिगड़ने लगता है तो हम कहते, हैं कि पर्यावरण दूषित हो रहा है। प्रकृति और मानव आदिकाल से ही परस्पर निर्भर रहे है। हमारे पूर्वजों ने वन्य जीवों को देवी-देवताओं की सवारी मानकर और पेड-पौधों को भी देवतुल्य समझकर उनकी पूजा की। इस हेतु उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया। आखिर बिगड़ते पर्यावरण का समाधान क्या है? क्या जरूरत इस बात की नहीं है कि हम पर्यावरण की प्रदूषित होती स्थिति के लिए सर्वप्रथम अपनी दूषित एवं दकियानूसी मानसिकता को बदले। क्या पर्यावरण के प्रति हमें अब सचेत और हद से ज्यादा जागरूक होने की आवश्यकता जान नहीं पड़ती? निरंतर कटते जंगल पृथ्वी के मंगल के लिए अमंगलकारी बन रहे है। बिना वृक्ष के जीवन की कल्पना कैसे की जा सकती है? आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रकृति और पर्यावरण के लिए हर उस काम से परहेज करे जिससे उसे हानि का सामना करना पड़े। पर्यावरण संरक्षण के कुछ सरल उपाय है जिन्हें हम अपने जीवन में आत्मसात कर अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं : -घर की खाली जमीन, बालकनी, छत पर पौधे लगायें, पालीथीन-प्लास्टिक न लें

-खिड़की से पर्दे हटाएं, दिन में सूरज की रोशनी से काम चलाएं।

-शावर लेने की बजाय बाल्टी में भरे पानी से नहाएं।

-बल्ब की जगह पर सीएफएल या एलईडी बल्ब लगाएं।

-कमरे से निकलने पर टीवी, लाइट, फैन, एसी बंद कर दें।

-बिना उपयोग मोबाइल, लैपटाप चार्जर को प्लग में न लगे रहने दें।

-प्लास्टिक कप, प्लेट की जगह मिट्टी के कुल्हड़, कागज या पत्ते के बने प्लेट अपनाएं।

-लिफ्ट की बजाय सीढि़यों का उपयोग करें।

-महंगे एयर प्युरीफायर की बजाय हवा साफ करने वाले पौधे लगाएं। मेरा मानना है कि इन नन्हें कदमों को उठा कर हम पर्यावरण संरक्षण की लंबी दूरी को अवश्य पार कर लेंगे। करके ऐसा काम दिखा दो, जिस पर गर्व दिखाई दे।

इतनी खुशियां बांटो सबको, हर दिन पर्व दिखाई दे।

हरे वृक्ष से वायु प्रदूषण का, संहार दिखाई दे।

हरियाली और प्राणवायु का, बस अम्बार दिखाई दे।

जंगल के जीवों के रक्षक, बनकर तो दिखला दो।

जिससे सुखमय प्यारा-प्यारा ये संसार दिखाई दे।

जागो बच्चों, जागो मानव, यत्‍‌न करो कोई ऐसा,

कोई प्राणी इस धरती पर, न बीमार दिखाई दे।

करके ऐसा काम दिखा दो, जिस पर गर्व दिखाई दे। मेरा मत यही है कि पर्यावरण की रक्षा को हमें एक 'उत्सव' की तरह से मनाना होगा। तभी हम इसे सुरक्षित कर ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भावी पीढि़यों को एक बहुमूल्य उपहार दे सकते हैं। इसमें प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए अन्यथा अनुच्छेद 48(अ) के अनुसार केवल सरकार द्वारा ही यह कार्य हो तो ऐसा कदापि संभव नहीं है और ऐसा हमें सोचना भी नहीं चाहिए। अपितु हम सभी को अपने बच्चों के साथ मिलकर प्रत्येक परिवारिक उत्सव या जन्मदिन पर खाली पड़े स्थानों पर एक पौधा लगाकर उसकी कम से कम वर्ष भर देखभाल करनी चाहिए। एक बार विचार कीजिए कि 'प्रकृति हमें कितना कुछ देती है और बदले में हम प्रकृति को क्या देते है?'

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प्रस्तुति : गोपाल दीक्षित, प्रिंसिपल, बीडीएस इंटरनेशनल स्कूल

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