UP Panchayat Chunav: वो भी क्या दौर था... चौपाल पर ही सर्वसम्मति से चुन लिए जाते थे प्रधानजी
बिजनौर वयोवृद्ध ग्रामीणों को पुराना दौर याद आ रहा है। उनका कहना है कि आजादी के चार दशक तक ग्राम प्रधान के पद पर गांव के गुणवान और सेवा भाव वाले व्यक्ति को ही खड़ा किया जाता था। मतदाता बिना किसी लालच के अपना वोट कर देते थे।
बिजनौर, जेएनएन। उत्तर प्रदेश में इन दिनों पंचायत चुनावों का दौर है। चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी हर प्रकार के हथकंडे अपना रह हैं। सरकारी अमले के पूरे प्रयास के बाद भी आचार संहिता उल्लंघन के मामले लगातार प्रकाश में आ रहे हैं। ऐसे में वयोवृद्ध ग्रामीणों को पुराना दौर याद आ रहा है। उनका कहना है कि आजादी के चार दशक तक ग्राम प्रधान के पद पर गांव के गुणवान और सेवा भाव वाले व्यक्ति को ही खड़ा किया जाता था। मतदाता बिना किसी लालच के अपना वोट कर देते थे। गांव की चौपाल से ही उम्मीदवार प्रधान के सिंहासन पर विराजमान हो जाते थे। यदि उस समय पंचायत चुनाव हो भी जाता था तो ग्रामीण प्रत्याशी को एक मत होकर जीता हुआ मान लेते थे, लेकिन आज चुनाव का ट्रेंड पूरी तरह बदल गया है।
आज भी इनकी यादों में बसा है वो दौर
जलीलपुर क्षेत्र के वयोवृद्ध ग्रामीण रामफल सिंह और ईश्वर दयाल का कहना है कि गांव वाले चुनाव में ऐसे सक्षम व्यक्ति को चुनते थे, जो समय आने पर गरीबों की मदद कर सके। जातिवाद व अन्य सभी भेदभाव से ऊपर उठकर गांव की सेवा व रक्षा कर सके। आजादी से पहले गांव की देखरेख और अन्य महत्वपूर्ण निर्णय के लिए गांव के ही एक गुणवान सेवा भाव वाले बुजुर्ग को मुखिया बनाया जाता था। आजादी के बाद गांव में मुखिया के स्थान पर प्रधान बनने लगे बुजुर्ग ग्रामीणों के अनुसार 1947-50 के दशक में ग्रामीण एक चौपाल पर बैठकर गांव के ही समाजसेवी के गुण को देख कर उस व्यक्ति को सर्वसम्मति से प्रधान चुनकर गांव के सिंहासन पर बैठा देते थे। वह प्रधान भी ग्रामीणों की अपेक्षाओं पर खरा उतरता था। लेकिन, अब आधुनिकता की दौड़ में ग्राम पंचायत के चुनाव भी हाइटेक हो गए। मास्टर राजेंद्र सिंह बताते हैं कि आजाद भारत के रूप में लोगों ने एक सपना देखा था कि भाईचारे व प्रेम, विकास और शांति का प्रतीक ऐसा मुल्क हो, जिसमें सभी को रोटी, कपड़ा और मकान मिल सके। समाजसेवी महाशय कल्याण सिंह आर्य का कहना है कि इस समय में पंचायत चुनाव रंजिश निकालने व शासन से आई धनराशि को हड़पने व मान प्रतिष्ठा के लिए लड़ा जाता है। यही कारण हैं कि सेवा भाव वाले व्यक्तियों ने चुनाव से किनारा कर लिया हैं। आज की राजनीति भी दोषपूर्ण हो गई है कहीं जाति देखकर तो कहीं धर्म देखकर चुनाव होता है।
1987-88 के बाद बदलने लगे चुनावी रंग
ग्रामीणों का कहना है कि सन 1987-88 के बाद से पंचायतों में वित्तीय योजना आरंभ होने के बाद चुनाव का स्वरूप साल दर साल बदलता चला गया। योजनाओं के कारण वर्तमान पंचायत चुनावों में नोटों की बौछार के साथ बाहुबलियों के चुनाव में कूदने से गांव का गुणवान व सेवा को समर्पित व्यक्ति किनारा करने लगे हैं।