सावन मनभावन, लेकिन न कजरी न झूले
श्रावण मास भगवान भोलेनाथ की आराधना के लिए तो जाना ही जाता है
जागरण संवाददाता, अदरी (मऊ) : श्रावण मास भगवान भोलेनाथ की आराधना के लिए तो जाना ही जाता है, पूर्वी उत्तर प्रदेश में सावन से कई परंपराएं जुड़ी हुई हैं। सावन के महीने में पहले जहां बागीचों में झूला झूलते हुए कजरी गीतों का सुनाई देना आम बात थी, वहीं इसे अब मात्र लोक कलाकारों की धुनों में ही सुना जाता है। वहीं, इन दिनों में गांव-गांव अखाड़े और अखाड़ों के पास कबड्डी खेलते दृश्य आम थे, जबकि यह अब नहीं दिखाई देता है। बच्चों से लेकर युवाओं तक में आधुनिकता का भाव ऐसे भर गया है, जैसे सावन की परंपराएं गुजरे जमाने की बात हों।
इस वर्ष सावन माह में मंदिर जाने से भी लोग कतरा रहे हैं। कोरोना की तीसरी लहर के भय से गांव में स्थित शिवालयों को ही ज्यादा तवज्जो दी जा रही है। सदियों से कजरी गीतों की धूम फिल्मी दुनियां से लेकर भोजपुरी और हिदी भाषी क्षेत्रों में थी, लेकिन इन गीतों की जगह अब डिस्को की धुन पर बजते फूहड़ या द्विअर्थी गीतों ने ले लिया है। किसान नेता देवप्रकाश राय ने कहा कि परपंराओं को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी गांव के माटी की होती है। स्वस्थ परंपराओं का विलुप्त होते जाना समाज के लिए विचारणीय है। अखाड़े पहले ग्रामीण युवाओं के शक्ति प्रदर्शन के स्थल हुआ करते थे। एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा रखते हुए युवा शरीर पर ध्यान देते थे और अगले सावन में बेहतर करने की चुनौतियां देते थे। युवा पीढ़ी को केवल मोबाइल में ही नहीं, बल्कि बाहर झांक कर परंपराओं में छिपे विज्ञान के रहस्यों को भी समझना होगा।