विकास के लिए जरूरी है सामाजिक समरसता
श्वेता नंद जायसवाल ने कहा कि जब हम जाति के नाम पर किसी व्यक्ति का अपमान करते हैं तो उसकी मानसिक क्षति ही नहीं मन में कुंठा का भाव उत्पन्न करते हैं इससे उसकी सोच केवल अपने तक ही सीमित रह जाती है और वह अपनी इस संकुचित सोच के आवरण में अपने देश या समाज का हित नहीं सोच पाता। यह समाज किसी एक व्यक्ति जाति वर्ण या समुदाय से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है।
महराजगंज : सामाजिक समरसता व एकता एक ऐसा विषय है, जिसकी चर्चा करना एवं ठीक प्रकार से कार्यान्वित करना आज समाज व राष्ट्र की आवश्यकता है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम सामाजिक समरसता अर्थात जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता रहित समाज के सभी वर्गों एवं वर्णो को लेकर एक साथ चलना होगा। यदि देखा जाए तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव को स्वीकार नहीं किया गया है।
यह बातें जागरण संस्कारशाला में कास्मोपालिटन स्कूल की प्रधानाचार्य श्वेता नंद जायसवाल ने कहीं। उन्होंने कहा कि जब हम जाति के नाम पर किसी व्यक्ति का अपमान करते हैं, तो उसकी मानसिक क्षति ही नहीं मन में कुंठा का भाव उत्पन्न करते हैं, इससे उसकी सोच केवल अपने तक ही सीमित रह जाती है और वह अपनी इस संकुचित सोच के आवरण में अपने देश या समाज का हित नहीं सोच पाता। यह समाज किसी एक व्यक्ति, जाति, वर्ण या समुदाय से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है। समाज की संपूर्णता एवं उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या समुदाय का हो, उसका सहयोग आवश्यक है, जिस प्रकार से शरीर का प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है, उसी प्रकार से कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र ंरूप से अस्तित्वहीन है, क्योंकि उसका विकास सामूहिकता में ही होता है। उन्होंने कहा कि हम सभी को समाज में एकता बनाए रखने के लिए सामाजिक समरसता को अपनाना चाहिए और देश को विकास के नए पथ पर आगे बढ़ाना चाहिए। सामाजिक समरसता एक क्रांतिकारी विचार है। किसी भी देश की एकता की यह जरूरी शर्त है। बरगद की तरह विचार कभी खत्म नहीं होते। समय आने पर वे प्रासंगिक हो जाते हैं। समाज को समरस बनाने के लोगों को प्रेरित करें। यह सिलसिला निरंतर जारी रखना चाहिए। हर कोई अपने काम को ईमानदारी और व पारदर्शी तरीके से करे तो समरस समाज की स्थापना संभव है।