World Music Day 2021: बनारस का उप शास्त्रीय गायन मशहूर रहा है, पर लखनऊ का भी अपना अलग है रुतबा

ठुमरी दादरा की स्वतंत्र गायिकी की बात करें तो बेगम अख्तर के बाद वह बहुत प्रतिष्ठित नहीं हो पाई जो रही वह कथक के साथ गाने वालों की ही रही। आज भी यही चलन है साथ में गाने की यह तालीम जरूरी भी है।

By Mahendra PandeyEdited By: Publish:Mon, 21 Jun 2021 11:19 AM (IST) Updated:Mon, 21 Jun 2021 11:19 AM (IST)
World Music Day 2021: बनारस का उप शास्त्रीय गायन मशहूर रहा है, पर लखनऊ का भी अपना अलग है रुतबा
विश्‍व संगीत दिवस पर लोकगायिका मालिनी अवस्‍थी ने व्‍यक्‍त किए विचार।

लखनऊ, [ मालिनी अवस्थी ]। संगीत से जुड़ाव तो बहुत पहले हो गया था, पर 1984 में जब हम लखनऊ आए तो सुरों की एक नई सक्रिय दुनिया ने आनंदित किया। वह बहुत बोलता हुआ लखनऊ था, जिसकी रग-रग में मौसिकी थी। बनारस का उप शास्त्रीय गायन मशहूर रहा है, पर लखनऊ का भी अपना अलग रुतबा है। पुराने समय से ही लखनऊ घराने में गायिकी अंग से ज्यादा कथक के संग ठुमरी का प्रचलन रहा। नवाब वाजिद अली शाह के जिक्र बिना तो ठुमरी अधूरी है। वह स्वयं नृत्य करते, ठुमरी लिखते और गाते। कालका बिंदादीन ड्योढ़ी से निकले प्रतिष्ठित कथक कलाकार हों या अन्य, सभी बहुत अच्छा गाते थे।

ठुमरी दादरा की स्वतंत्र गायिकी की बात करें तो बेगम अख्तर के बाद वह बहुत प्रतिष्ठित नहीं हो पाई, जो रही, वह कथक के साथ गाने वालों की ही रही। आज भी यही चलन है, साथ में गाने की यह तालीम जरूरी भी है। हालांकि, गजलें तो बहुत लोग गाते रहे, गाते हैं, पर ठुमरी, दादरा में जरीना बेगम शानदार गाती थीं। उनकी गायिकी बेगम अख्तर की याद दिलाती। ठुमरी, दादरा के भाव बताना हमेशा से ही लखनवी कथक की खासियत रही है। ठुमरी तो भाव के बिना है ही नहीं, लेकिन यहां भाव करके भी दिखाया जाता, यही भाव लखनऊ घराने को अलग करती है और यही ताकत भी है। लखनऊ की ठुमरी में नृत्य भी जुड़ा है। आप कथक कलाकारों से भी ठुमरी सुन सकते हैं, लेकिन स्वतंत्र कलाकार के तौर पर अभी बहुत गुंजाइश बाकी है।

बेगम अख्तर की बात करें तो कुछ किरदार ऐसे तैयार हो जाते हैं कि उनकी जिंदगी की एक चीज सब पर भारी पड़ती। बेगम अख्तर पटियाला घराने से सीखीं। वह पूरब अंग की गायिकी गातीं। कई उनकी बंदिशें जो हमने सुनी और सीखी हैं, वह बनारस में भी वही हैं। उदाहरण के तौर पर...

बनारस में गाया जाता है- "पूरब मत जइहो राजा जी..." इसी को लखनऊ में वे यह कहकर गाती थीं, "हमार कहा मानो राजा जी...।"  दोनों ही दादरों के अंतरे एक जैसे हैं, धुन का चलन भी एक जैसा है, मुखड़े में थोड़ा बदलाव है।  बनारस की ठुमरी में ब्रज के शब्द और पूरब के पद हैं। वहीं, लखनऊ की ठुमरी में खड़ी बोली और हल्के पूरब के शब्द हैं। बेगम अख्तर की गायिकी पर कई उस्तादों का असर पड़ा, इसलिए भी उनकी नायाब गायिकी थी। हमारे उस्ताद राहत अली खां साहब भी लखनऊ से गोरखपुर गए थे। वह पटियाला से सीखे थे। समग्रता में कहें तो संगीत का सम्मिश्रण था लखनऊ, इसी विविधता ने लखनऊ को विशिष्टता दी।

बेगम अख्तर तो ईश्वर का वरदान थीं, उपजी हुई गायिकी थी, पर लखनऊ की ठुमरी असली तो वही है जो नृत्य के साथ इस्तेमाल की गई। चूंकि सब लोग नृत्य नहीं करते थे, पर जो गाते थे वह भी इसके माधुर्य, शब्दों के चयन और सांगीतिक सौंदर्य का ख्याल रखते थे। शायराना अंदाज भी दिखता है, ठुमरी के बीच में शेर भी पढ़े जाते। सार कहें तो लखनऊ की ठुमरी कथक के घरानों में फली-फूली और नृत्य के जरिए मुखरित हुई। बनारस और लखनऊ की ठुमरी में अंतर कहें तो बनारस की ठुमरी में जत ताल 16 मात्रा ज्यादा इस्तेमाल होती है, यह ठहरी हुई और गंभीर है। ठुमरी को गंभीर ठाह में शुरू करते हैं उसके बाद धीरे-धीरे लग्गी लगाकर आगे बढ़ते हैं। लखनऊ की ठुमरी चलत वाली है, उनमें चपलता और नजाकत है। मध्य लय का ज्यादा काम है। वहां रागदारी पर ज्यादा ध्यान है, यहां माधुर्य और अदायगी पर जोर है।

कुछ उल्लेखनीय नाम : उप शास्त्रीय गायन में इस समय सबसे बड़ा नाम पंडित धर्मनाथ मिश्र हैं, वह बनारस घराने के हैं, लेकिन कर्मस्थली लखनऊ ही है। गुलशन भारती भी बड़ा नाम हैं। रवि नागर का भी उल्लेखनीय योगदान है। सुगम संगीत में भी मनोहर स्वरूप और अलताफ हुसैन खां समेत कई दिग्गज कलाकार हुए ।(लेखिका प्रख्यात उप शास्त्रीय गायिका हैं।)

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